________________
ज्ञान एवं वचन को प्रामाणिकता
८९
प्रमाणता और अप्रमाणता दोनों ही परतः मानी जानी चाहिए।"१ अस्तु वस्तुनिष्ठ ज्ञान की प्रमाणता-अप्रमाणता परतः ही होती है। वचन को प्रामाणिकता का प्रश्न
इस प्रकार हमने ऊपर संक्षेप में ज्ञान की प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता की बात को समझा, किन्तु अब प्रश्न यह है कि कौन सा कथन (वचन) प्रामाणिक है और कौन सा (कथन) अप्रामाणिक ? इस संदर्भ में वस्तुवादी दार्शनिकों का मत है कि सत्य कथन वह है जो तथ्य यानी वस्तु के यथार्थ स्वरूप के अनुकूल हो अर्थात् हमारा कथन तभी सत्य हो सकता है जब वह वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप का संवादी हो अन्यथा असत्य और अपूर्ण होगा। वस्तु के “यथार्थ स्वरूप" से हमारा तात्पर्य यह है कि वस्तु के जिस धर्म का कथन हम कर रहे हैं वह उसी रूप में उस लक्षित वस्तु (उद्देश्य) में प्राप्य हो और इस तरह के विधेय युक्त कथन यथार्थ होते हैं। इस संदर्भ में जार्ज पैट्रिक ने लिखा है कि "यह ऐसे सामान्य व्यक्ति का दष्टिकोण होता है जो यथार्थ का भेद यथार्थ के कथन से करता है और जब कथन का संवाद तथ्य से हो तो उसे वह सत्य मानता है इसलिये यह कथन कि नवीन इंग्लैण्ड के किनारे अटलांटिक के जल से धुलते हैं सत्य है, क्योंकि यह कथन तथ्य का संवादी है। किसी भी व्यक्ति को इस निर्णय के बताने के पूर्व वास्तव में अटलांटिक के जल से नवीन इंग्लैण्ड के किनारे धुलते थे । अतः प्रत्येक कथन को सत्य होने के लिए लक्षित तथ्य का संवादी होना आवश्यक है। जिस प्रकार ज्ञान का ज्ञेय वस्तु के तुल्य होना अनिवार्य है, अर्थात् यथार्थ या प्रामाणिक ज्ञान ज्ञेय वस्तु का संवादी होता है। उसी प्रकार कथन भी तभी सत्य होता है जब वह तथ्य का संवादी हो । अतः यदि कथ्य विधेय उद्देश्य में है तो वह कथन यथार्थ है अन्यथा अयथार्थ ।
किन्तु प्रश्न यह है कि क्या हमारा कथन या हमारा निर्णय वास्तव में तथ्य का संवादी होता है ? क्या उस वस्तु में निहित जो धर्म हैं उन सबका उसी रूप में कथन करना संभव है ? कदापि नहीं। जार्ज पैट्रिक ने निर्णय और तथ्य के बीच एक गहरी खाई को स्वीकार किया है। उनके १. जैन-दर्शन, पृ. १९९. २. दर्शन-शास्त्र का परिचय, पृ० ३७९-८०.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org