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________________ ८८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या सारांश यह है कि चाहे ज्ञान-ज्ञान रूप से तो स्वतः प्रामाण्य हो किन्तु जहां तक वस्तुगत ज्ञान की प्रामाण्यता का प्रश्न है वहाँ तक उस ज्ञान की प्रामाण्यता अन्ततोगत्वा बाह्य वस्तुओं पर ही निर्भर होती है। अर्थात् वह ज्ञान परतः प्रामाण्य होता है। चंकि इन्द्रियों की ग्राहकता सीमित है। इसलिए वस्तुगत ज्ञान कभी बाह्य वस्तु के अनुरूप होता है और कभी नहीं होता। इस प्रकार ज्ञान की यथार्थता-अयथार्थता, प्रामाण्यता-अप्रामाण्यता की व्यवस्था ज्ञेय वस्तु के स्वरूप पर निर्भर होती है। अतः वस्तुगत ज्ञान की प्रामाण्यता बाह्य वस्तुओं पर ही निर्भर होती है। यद्यपि स्वतः प्रामाण्य के रूप में वस्तुगत ज्ञान की प्रामाण्यता ज्ञानान्तर ज्ञान या अभ्यासदशापन्न ज्ञान से भी निश्चित होती है। किन्तु यह ज्ञानान्तर ज्ञान अथवा अभ्यासदशापन्न ज्ञान भी अन्ततोगत्वा बाह्य वस्तुओं (ज्ञेय) पर निर्भर होता है; क्योंकि उस ज्ञान की पूर्व प्रतीति बाह्य वस्तुओं के रूप में ही हुई थी। इसलिए ज्ञान की स्वतः प्रामाण्यता भी बाह्य वस्तुओं पर आश्रित है और परतः प्रामाण्यता तो बाह्यवस्त्वाश्रित है ही। जिसे हम पूर्व में सिद्ध कर चुके हैं । अतएव ज्ञेय वस्तुओं के सन्दर्भ में स्वतः और परतः दोनों ही प्रामाण्य व्यवस्था बाह्य वस्तुओं पर अवलम्बित है। इस प्रकार ज्ञान के प्रामाण्य-अप्रामाण्य निश्चय की स्वतः और परतः दो ही विधायें हैं और दोनों ही विधायें अन्ततोगत्वा बाह्य वस्तुओं पर निर्भर हैं। इसलिए सम्पूर्ण ज्ञान की यथार्थता बाह्य वस्तुओं पर आश्रित है। यद्यपि पारमार्थिक सत्ता जो इन्द्रियानुभव का विषय नहीं है, जिनकी अपरोक्षानुभूति मात्र होती है; ऐसे ज्ञान को प्रामाण्यता के लिए स्वतः प्रामाण्य को स्वीकार करना ही पड़ता है । किन्तु जहाँ तक वस्तुनिष्ठ ज्ञान की प्रामाण्यता की बात है वहाँ तक तो वह परतः प्रामाण्य होता है। डॉ. महेन्द्र कुमार जैन ने कहा है कि "प्रमाणता या अप्रमाणता सर्वप्रथम तो परतः ही गृहीत होती है, आगे परिचय और अभ्यास के कारण भले ही वे अवस्था विशेष में स्वतः हो जायें। गुण और दोष दोनों वस्तु के ही धर्म हैं। वस्तु या तो गुणात्मक होती है या दोषात्मक । अतः गण को ‘स्वरूप" कह कर उसका अस्तित्व नहीं उड़ाया जा सकता। दोनों की स्थिति बराबर होती है। यदि काचकामलादि दोष हैं तो निर्मलता चक्षु का गुण है । अतः गुण और दोष रूप कारणों से उत्पन्न होने के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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