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द्वितीय अध्याय
स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि
स्याद्वाद का तात्पर्य
स्याद्वाद अनेकान्तवाद का ज्ञान मीमांसीय रूप है । अनेकान्तवाद के अनुसार वस्तुएँ अनन्तधर्मात्मक हैं- “ अनन्तधर्मकं वस्तु" । सामान्य मनुष्य का ज्ञान सीमित एवं अपूर्ण होता है । अतः वह वस्तु के अनन्त गुणधर्मों का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि वस्तु के अनन्त - गुणधर्मों में से अव्यक्त गुणधर्मों का पुनः वह जो कुछ
।
कुछ धर्म व्यक्त होते हैं और कुछ अव्यक्त वस्तु के ज्ञान साधारण व्यक्ति के लिए सम्भव ही नहीं है । जानता है उसे समग्रतया एक ही प्रकथन में अभिव्यक्त करने में असमर्थ होता है; क्योंकि उसकी वाणी की सामर्थ्य उसकी ज्ञान- सामर्थ्य की अपेक्षा सीमित है । उदाहरणार्थ - किसी वस्तु को देखते ही उसके रंग, रूप, मोटाई, चौड़ाई आदि अनेक आयामों का ज्ञान एक साथ प्राप्त किया जा सकता है, पर उन समस्त दृष्टिगत आयामों को एक ही वाक्य या कथन के द्वारा अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता । वस्तुतः मुनि नथमल का यह कहना ठीक ही प्रतीत होता है कि "ज्ञेय अनन्त, ज्ञान अनन्त, किन्तु वाणी अनन्त नहीं ।" इस प्रकार ज्ञान और अभिव्यक्ति की सीमाओं को बताना ही स्याद्वाद का उद्देश्य है ।
जैन विचारकों के अनुसार अधिकांश दार्शनिक विवादों, आलोचनाओं, प्रत्यालोचनाओं का मूलकारण ज्ञान एवं अभिव्यक्ति की इन सीमाओं की उपेक्षा कर अपने ज्ञान एवं कथन को ही निरपेक्ष एवं पूर्ण सत्य मान लेना है । यही आग्रह है, एकान्त है । इसी एकान्तता के कारण ज्ञान दूषित बन जाता है । स्याद्वाद ही एक ऐसा सिद्धान्त है, जो ज्ञान और वाणी की सीमा को ध्यान में रखते हुए कथन की सत्यता को उद्घाटित कर सकता है । यद्यपि सर्वज्ञ (केवली) वस्तु के व्यक्त एवं अव्यक्त अनन्त धर्मों को जान सकता है परन्तु वह भी वाणी द्वारा उन सबको एक साथ अभिव्यक्त करने में असमर्थ होता है; क्योंकि वाणी (भाषा)
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