________________
स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि
५१
की अपनी सीमा है । वह उसका अतिक्रमण नहीं कर सकती । यद्यपि उन समस्त धर्मों का प्रतिपादन वाणी (भाषा) द्वारा ही संभव है फिर भी शब्द - सामर्थ्य सीमित होने के कारण प्रत्येक प्रकथन किसी एक विशिष्ट गुण-धर्म को ही अभिव्यक्त कर पाता है; क्योंकि वचन व्यापार क्रम से ही होता है । वस्तुतः वस्तुतत्त्व का यथार्थ प्रतिपादन क्रमपूर्वक एवं सापेक्ष रूप से ही संभव है ! जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में कहा गया है कि “किसी भी एक शब्द या वाक्य द्वारा सारो की सारो वस्तु का युगपत् कथन करना अशक्य होने से प्रयोजनवश कभी एक धर्म को मुख्य करके कथन करते हैं और कभी दूसरे को । मुख्य धर्म को सुनते हुए श्रोता को अन्य धर्म भी गौण रूप से स्वीकार होते रहें, उनका निषेध न होने पावे इस प्रयोजन से अनेकान्तवादी अपने प्रत्येक वाक्य के साथ स्यात् या कथंचित् शब्द का प्रयोग करता है" । "
इस प्रकार स्याद्वाद एक निश्चित दृष्टिकोण से अनेकान्तात्मक अर्थों का प्रकाशन करते हुए यह स्पष्ट घोषित करता है कि वस्तु में सभी धर्म समान रूप से विद्यमान हैं । वक्ता को वस्तु के जिस धर्म की विवक्षा जिस समय होती है उस समय वह मुख्य और शेष अविवक्षित धर्म गौण हो जाते हैं । " पुरुषार्थसिद्धयुपाय" में गोपी के दृष्टान्त द्वारा यह स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस तरह मथानी की रस्सी को क्रमशः खींचकर और शिथिल कर गोपी दधि मन्थन कर अपने अभीष्ट तत्त्व (मक्खन) को प्राप्त कर लेती है, ठीक उसी प्रकार स्याद्वाद नीति भी वस्तु के विवक्षित धर्म के आकर्षण और शेष अविवक्षित धर्मों के शिथिलीकरण द्वारा अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्व की उपलब्ध करा देती है ।"२ आचार्य उमास्वामी का भी यही कहना है कि मुख्यता और गौणता से ही अनेकान्तात्मक वस्तु का कथन सिद्ध होता है । समन्तभद्र ने भी कहा है कि “किसी पदार्थ (के गुण-धर्मों) का या उसकी पर्याय (विशेष) का विधान या निषेध विवक्षा ( कहने की इच्छा) के अनुसार किसी बात को मुख्य और अन्य बात को गौण (अमुख्य ) मान
१. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृ० ४९७ । २. एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण ।
अन्तेन जयति जैनीनी तिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ॥
३. "अर्पितानपित सिद्धेः ।" तत्त्वार्थसूत्र, ५:३१.
Jain Education International
—पुरुषार्थसिद्ध्युपाय; श्लोक २२५
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org