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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
कर कथञ्चित् रूप से (किसी दृष्टिकोण से ) किया जाता है ।" वस्तुतः शब्द व्यापार क्रमशः होने के कारण मनुष्य वस्तु के अनेक धर्मों में से एक धर्म को मुख्य और शेष को गौण रखकर ही प्रतिपादन करता है । परन्तु यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि मुख्यता और गोणता वस्तु में विद्यमान धर्मों में नहीं होती, अपितु वक्ता की अपेक्षा अनपेक्षा में होती है । वस्तु में तो सभी धर्मं समान रूप से रहते हैं । उनमें मुख्य और गौण होने का कोई प्रश्न नहीं होता; क्योंकि वस्तु में उन्हें समान रूप से धारण करने की शक्ति निहित होती है । शब्द व्यापार उसे एक साथ अभिव्यक्त नहीं कर पाता । इसीलिए वह मुख्य और गौण का भेद करता है । वस्तुतः मुख्य और गौण का भेद वाणी में होता है वस्तु के अनन्त धर्मों में नहीं । डॉ० हुकुमचन्द्र ने अपने ग्रन्थ "तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ" में स्याद्वाद का अर्थ स्पष्ट करते हुए यही बात कही है ।
जैन दर्शन की दृष्टि में प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मवती है । वह न सर्वथा सत् ही है और न सर्वथा असत् ही है; न सर्वथा नित्य ही है और न सर्वथा अनित्य ही है । किन्तु किसी अपेक्षा से सत् है तो किसी अपेक्षा से असत् है; किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी अपेक्षा से अनित्य है | अतः सर्वथा सत्, सर्वथा असत्, सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य इत्यादि एकान्तों का निरसन करके वस्तु का कथञ्चित् सत्, कथञ्चित् असत् कथञ्चित् नित्य, कथञ्चित् अनित्य आदि रूप होना अनेकान्त है और वस्तु के उस अनेकान्तात्मक स्वरूप के कथन करने की विधि स्याद्वाद है । वस्तु के
१. विधिनिषेधश्च कथंचिदिष्टौ विवक्षया मुख्य-गुण-व्यवस्था ।
२. द्रष्टव्य
तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृ० १५२.
३. असत् का अर्थ वस्तु की सत्ता का अभाव नहीं अपितु वस्तु में किन्हीं विशिष्ट गुण-धर्मों का अभाव है । जैसे गो में अश्वत्व के विशिष्ट गुणधर्म का
अभाव ।
४. " अनेकान्तात्मकार्थ कथनं स्याद्वादः । "
— लघीयस्त्रय टीका - न्यायकुमुद चन्द्र,
स्वयम्भूस्तोत्र, श्लोक - २५.
तृतीयः प्रवचनं प्रवेशः, श्लो० ६२ की टीका
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