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जैन न्याय में सप्तभंगी
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अनुपस्थित या अभावात्मक धर्मों की सूचना देता है कि अमुक वस्तु में अमुक-अमुक धर्मं अमुक-अमुक अपेक्षा से नहीं हैं । उदाहरणार्थ, स्थान्नास्त्येव घट: का अर्थ है सापेक्षतः घट नास्तिरूप ही है । परन्तु यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि घट को नास्ति रूप कहने का आशय घट की सत्ता का निषेध नहीं है; अपितु घट में परधर्मों का निषेध है । जब यह कहा जाता है कि सापेक्षतः घट नास्ति रूप ही है तब जैन आचार्यों के इस कथन का आशय यही होता है कि घट में पर चतुष्टय का अभाव है अर्थात् घट में घटेतर पट आदि के गुण-धर्म नहीं हैं; क्योंकि प्रत्येक वस्तु स्व-रूप से विद्यमान होती है पर रूप से नहीं । परन्तु यह भी स्मरण रखना चाहिए कि प्रत्येक वस्तु में केवल भावात्मक गुण-धर्म ही नहीं होते, बल्कि अभावात्मक गुणधर्म भी होते हैं । यदि वस्तु में केवल भावात्मक धर्मों की ही सत्ता मानी जाय तो एक वस्तु के सद्भाव से सभी वस्तुओं का सद्भाव हो जायेगा और यदि सर्वथा अभावरूप मान लिया जाय तो वस्तु को सर्वथा स्वभावरहित मानना पड़ेगा जो कि सर्वथा अनुचित है । अतः प्रत्येक वस्तु में भावात्मक एवं अभावात्मक दोनों ही प्रकार के धर्म होते हैं । उनका अस्तित्व स्व के ग्रहण और पर के निषेध से ही बनता है । विद्यानन्दी का कहना है कि सत्ता का निषेध स्व भिन्न अनन्त पर की अपेक्षा से है । यदि पर की दृष्टि के समान स्व की दृष्टि से भो अस्तित्व का निषेध माना जाय तो घट निःस्वरूप हो जाएगा । सप्तभङ्गी का यह दूसरा भङ्ग इन्हीं पर धर्मों के अभाव की सूचना देता है । जिस प्रकार प्रथम भङ्ग यह सूचित करता है कि वस्तु में क्या-क्या है । उसी प्रकार दूसरा भङ्ग यह सूचित करता है कि वस्तु में क्या-क्या नहीं है ।
अब यहाँ ऐसी शङ्का की जा सकती है कि जब एक ही वस्तु में भावात्मक (सत्त्व) और अभावात्मक (असत्त्व) दोनों ही धर्मं दृष्टिभेद से रहते हैं तब सत्त्व तथा असत्त्व का भेद घटित नहीं होता; क्योंकि जो घट स्व-रूप से सत्त्व रूप है, वही घट अन्य पटादि रूप से असत्त्व रूप भी है । अतः सत्व और असत्त्व दोनों एक दूसरे में गतार्थ हैं । ऐसी अवस्था में सत्त्व प्रकाशक प्रथम और असत्त्व प्रकाशक द्वितीय भंग को अलग-अलग मानने की कोई आवश्यकता नहीं है; क्योंकि स्यादस्त्येव भङ्ग के कथन से स्यान्ना
१. " पर रूपापोहनवत् स्वरूपापोहने तु निरुपाख्यत्वस्य प्रसंगात् " । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १:६:५२ की टीका, पृ० १३१ ॥
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