________________
१५२
जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय को आधुनिक व्याख्या
वान् होना न स्वीकार किया जाय तो उसकी सत्ता ही नहीं रह जायेगी, वह तो सर्वथा असत् हो जायेगी और समस्त विश्व शून्यमय हो जायेगा।
इसी प्रकार यदि स्वयं से भिन्न अन्य समग्र पर-स्वरूपों में भी वस्तु का अस्तित्व हो तो फिर उपर्युक्त घट-घट हो नहीं रह सकता; वह घट के साथ ही पट आदि भी हो जायेगा। उसमें जल-धारण आदि की क्रियायें ही नहीं रहेंगी अपितु पट की आच्छादन आदि क्रियायें भी उपस्थित हो जायेंगी,
और ऐसी अवस्था में दही और ऊँट में कोई भिन्नता नहीं रह जायेगी। साथ ही दही खाने का इच्छुक व्यक्ति ऊँट के लिए दौड़ने लगेगा। जिससे सारा व्यवहार ही असंभव हो जायेगा । अतएव यदि वस्तुओं में स्व-स्वरूप के समान हो, पर-स्वरूप की भी सत्ता एक ही साथ मान ली जाय तो उनमें स्व-पर का विभाग किसी भी प्रकार से घटित नहीं हो सकेगा, और उसके अभाव में गुड़ और गोबर एक हो जायेगा, और वस्तु का कोई निश्चित स्वरूप ही नहीं रह जायेगा। अतएव वस्तु की वस्तुता को निश्चित करने के लिए यह आवश्यक है कि उसके स्व-रूप का ग्रहण और पर-रूप का त्याग हो; क्योंकि वस्तु की वस्तुता स्व-रूप के ग्रहण और पर-रूप के त्याग से ही स्थिर होती है और स्व-रूप का ग्रहण तथा पर रूप का त्याग तभी सम्भव है जब उसके अस्तित्व सूचक विधायक धर्मों का ग्रहण और निषेधक धर्मों का त्याग किया जाय, क्योंकि वस्तु का अस्तित्व स्व-रूप से ही होता है पर-रूप से नहीं । उक्तम् च
__"सर्वम् अस्ति स्व-रूपेण पर-रूपेण नास्ति च ।" इस प्रकार सप्तभङ्गी का यह प्रथम भङ्ग वस्तु की इसी वस्तुता का निर्धारण करता है। सप्तभङ्गी नयप्रदीपप्रकरण में कहा गया है कि "सत्त्वासत्त्वादिसप्तविधधर्मपरिमिते वस्तूनिअखण्डे सदंशस्य कल्पनया यद् विभाजनं पृथक्करणं तेन "स्यादस्त्येव सर्वम्" इति प्रथमो भङ्गो भवति ।"' अर्थात् सत्त्व-असत्त्व आदि सात प्रकार के धर्मों से युक्त वस्तु के सत्त्व अंश का पृथक्करण जिसके द्वारा होता है वह प्रथम भङ्ग है। संक्षेप में यही प्रथम भङ्ग का अर्थ है। द्वितीय भङ्ग
"स्यान्नास्त्येव" यह सप्तभङ्गी का दूसरा भङ्ग है। यह वस्तुतत्त्व के १. सप्तभङ्गी नयप्रदीपप्रकरणम्, प्रथमसर्ग, पृ० ८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org