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________________ जैन न्याय में सप्तभंगी कहते हैं। जैसे यह घट मिट्टी का है। इसमें घट का द्रव्य मिट्टी है; क्योंकि घट मिटटी से ही बना है अन्य किसी पदार्थ से नहीं। अतः घट के द्र व्यत्व का निर्धारण मिट्टी से होता है ! क्षेत्र का अर्थ है स्थान विशेष । घट जिस स्थान पर है या जिस स्थान का बना हुआ है उस स्थान विशेष को उसका क्षेत्र कहा जायेगा। जैसे यह घट वाराणसी का बना है अन्य स्थान का बना हुआ नहीं है। पूनः प्रत्येक वस्तु किसी न किसी स्थान विशेष में ही होती है सर्वत्र नहीं। इसलिए उसके स्वरूप निश्चय में क्षेत्र का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। काल का अर्थ है समय । काल की अपेक्षा से भी पदार्थ के स्व-रूप और पर-रूप का विचार किया गया है। वस्तु की वर्तमान में रहने वाली पर्याय स्व-रूप हैं और भूत तथा भविष्यवर्ती पर्यायें पर-रूप हैं । अतः वर्तमान पर्यायों की अपेक्षा से वस्तु सत् और अतीत तथा अनागत पर्यायों की अपेक्षा से असत् है। दूसरे शब्दों में, वर्तमान काल की अपेक्षा से वस्तु सत् और भूत तथा भविष्य काल की अपेक्षा से असत् है। इस प्रकार वस्तु के स्वरूप निश्चय में काल का भी विशेष योगदान है। इसी प्रकार भाव का अर्थ है पर्याय या आकार विशेष । जिस आकार या पर्याय वाली वस्तु है उसकी अपेक्षा से वह सत् है और तदितर की अपेक्षा से असत् है अर्थात् उन पर्यायों का वस्तु में अभाव है। किन्तु इन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अलग-अलग निश्चय से वस्तु का स्वरूप निश्चित नहीं होता है। प्रत्युत वस्तु-स्वरूप के निर्धारण में इन चारों अपेक्षाओं की एक साथ आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि ये चारों एक साथ ही सत्ता में पाये जाते हैं। इनके साथ ही, वस्तु के स्वरूप निश्चय हेतु पर-चतुष्टय का निषेध भी अपेक्षित होता है। डॉ० महेन्द्र कुमार जैन ने लिखा है-"द्रव्य एक ईकाई है, अखण्ड हैं, मौलिक है। पूगल द्रव्यों में ही परमाणुओं के परस्पर संयोग से छोटे-बड़े अनेक स्कन्ध तैयार होते हैं। ये स्कन्ध संयुक्त पर्याय हैं। अनेक द्रव्यों (द्रव्य स्कन्धों) के संयोग से ही घट, पट आदि स्थूल पदार्थों की सृष्टि होती है। ये संयुक्त स्थूल पर्यायें भी अपने द्रव्य, अपने क्षेत्र, अपने काल और अपने असाधारण निज धर्म की दृष्टि से “सत्" हैं और पर द्रव्य, पर क्षेत्र, पर काल और पर भाव की दृष्टि से असत् है।' अतः प्रत्येक वस्तु स्वरूप से ही अस्तित्ववान होती है पर रूप से नहीं । यदि किसी वस्तु को स्व-रूप से अस्ति-रूप या अस्तित्व१. जैन-दर्शन, पृ० ३६९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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