SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या इस प्रकार सप्तभङ्गी का यह प्रथम भङ्ग वस्तु के भावात्मक धर्मों का विधान करता है और ये भावात्मक धर्म उसकी अस्तिरूपता को सूचित करते हैं। लेकिन ये अस्तिसूचक धर्म स्वचतुष्टय से ही अस्तिसूचक हैं परचतुष्टय से नहीं। जैन-दर्शन के अनुसार विश्व में पदार्थों के जो भी अस्तिसूचक धर्म हैं वे स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की दष्टि से ही अस्तिसूचक हैं पर द्रव्यादि की दृष्टि से नहीं। जब हम यह कहते हैं कि कथञ्चित् घट अस्तिरूप है ही, तब हमारा उद्देश्य यही होता है कि घट में स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव की अपेक्षा से अस्तित्व सूचक धर्म हैं; पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव की अपेक्षा से नहीं; क्योंकि वस्तु का स्व-स्वरूप स्वचतुष्टय से ही बनता है परचतुष्टय से नहीं। किन्तु प्रश्न यह है कि स्वचतुष्टय क्या है और पर-चतुष्टय क्या है ? जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु का अपना विशिष्ट स्वरूप होता है जो उसकी सत्ता का सार तत्त्व होता है। वस्तु का स्वरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से निश्चित होता है। वस्तु के इन्हीं द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को जैन-दर्शन में चतुष्टय कहा जाता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव यह चतुष्टय स्व-रूप भी होता है और पर-रूप भी-जिस द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप चतुष्टय की वस्तु में भावात्मक सत्ता होती है वह स्वचतुष्टय और जिस चतुष्टय की सत्ता वस्तु में अभावात्मक होती है वह पर-चतुष्टय कहलाता है। स्व-चतुष्टय वस्तु का भावात्मक पक्ष है और पर-चतुष्टय वस्तु का अभावात्मक पक्ष है। इन्हीं स्व और पर चतुष्टय के आधार पर ही वस्तु का स्वरूप निश्चित होता है । वस्तु में जिन गुण-धर्मों की उपस्थिति होती है वे ही उसका स्वचतुष्टय बनते हैं और जिनकी उपस्थिति नहीं होती है वे उनके लिए. पर-चतुष्टय होते हैं। वस्तु का स्वरूप तभी बनता है जब उसमें स्व-द्रव्य, क्षेत्र आदि की उपस्थिति के साथ ही पर द्रव्य, क्षेत्र आदि का अभाव भी हो । कुर्सी, कुर्सी तभी तक है; जब तक उसमें कुर्सी के गुण-धर्मों की उपस्थिति के साथ ही टेबुल के गुण-धर्मों का अभाव भी हो । इस चतुष्टय के चार अङ्ग हैं, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । सामान्य रूप से जैन-दर्शन में द्रव्य का अर्थ है गुण और पर्याय से युक्त होना (गुण पर्यायवत् द्रव्यम्) । किन्तु यहाँ वस्तु के मूल में जो पदार्थ है उसी को द्रव्य कहते हैं अर्थात् वस्तु जिस पदार्थ से बनी है उसी को उस वस्तु का द्रव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy