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२१८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
ठीक इसी प्रकार सहयोजित अवक्तव्य भंग का भी अन्य सभी भंगों से भेद अनुभव सिद्ध है, क्योंकि अवक्तव्यत्व रूप धर्म अस्ति-नास्ति आदि सभी धर्मों से विलक्षण है। जिस प्रकार क्रम योजित सत्ता और असत्ता का उभयकोटिक ज्ञान अस्ति और नास्ति भंग के ज्ञान से भिन्न है, उसी प्रकार अक्रम योजित अवक्तव्यत्व रूप धर्म भी उक्त सभी धर्मों से भिन्न है। इस तथ्य को जैन आचार्यों ने निम्नलिखित दष्टान्तों के आधार पर सिद्ध किया है। जिस प्रकार दही और शक्कर में मरिच, इलायची नागकेसर तथा लवंग आदि को मिलाने से एक अपूर्व पानक रस की उत्पत्ति होती है और उस पानक रस का स्वाद और सुगन्ध दही, गुड़, मरिच तथा लवंग आदि के स्वाद और सुगन्ध से विलक्षण होता है। साथ ही दही, गुड़, मरिच तथा लवंग आदि को अलग-अलग ग्रहण करने पर भिन्न-भिन्न स्वाद का अनुभव होता है। उसी प्रकार पूर्व के भंगों में भिन्नभिन्न अर्थों की प्राप्ति होने के बाद भी इसमें एक अपूर्व अर्थ की प्राप्ति होती है अर्थात् अक्रम योजित अस्ति नास्ति भंग पूर्व के अस्ति, नास्ति और क्रमयोजित अस्ति नास्ति से विलक्षण है। इसी प्रकार शेष भंगों को भी परस्पर भिन्न समझना चाहिए।
इस प्रकार सप्तभंगी का प्रत्येक भंग परस्पर भिन्न है। इसलिए प्रत्येक भंग का अपना अलग-अलग मूल्य है। सांयोगिक कथनों का मूल्य
और महत्त्व अपने अङ्गीभूत कथनों के मूल्य और महत्त्व से भिन्न होता है। इस बात की सिद्धि भौतिक विज्ञान के निम्नलिखित सिद्धान्त से किया जा सकता है। उस सिद्धान्त में कहा गया है कि कल्पना कीजिए कि भिन्नभिन्न रंग वाले तीन प्रक्षेपक अ, ब और स इस प्रकार व्यवस्थित हैं कि उनसे प्रक्षेपित प्रकाश एक दूसरे के ऊपर अंशतः पड़ते हैं जैसा कि चित्र में
अन्यथा प्रत्येकघकाराद्यपेक्षया घटपदस्याद्यभिन्नत्वे धकाराद्युच्चारणेनैव घटपट ज्ञानसम्भवेन घटत्वावच्छिन्नोपस्थिति सम्भवाच्छेषोच्चारणवैयर्थ्यमापद्यत । अतएव प्रत्येक पुष्पापेक्षया मालायाः कथञ्चिद्भेदस्सर्वानुभव सिद्धः । इत्थं च कथञ्चित्सत्त्वासत्त्वापेक्षया क्रमापितोभयमतिरिक्तमेव ।
--सप्तभंगीतरङ्गिणी, पृ० १३. २. वही, पृ० १५.
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