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उपसंहार
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अर्थात् सत्ता और असत्ता के प्रतिपादक धर्म स्वचतुष्टय और परचतुष्टय में भेद होने से सत् और असत् अर्थात् सत्ता और असत्ता में भी भेद है। यदि ऐसा न हो तो स्वरूप के सदृश पर रूप के भी सत् होने का प्रसंग आ जायेगा और इसी प्रकार पर रूप के असत् होने के तुल्य स्वरूप भी असत् हो जायेगा। इसलिए सत्ता और असत्ता के प्रतिपादक धर्मों के भेद से सत्ताअसत्ता का भी भेद स्पष्ट ही है।” साथ ही सत्ता (सत्त्वधर्म) का प्रतिपादक अस्ति भंग और असत्ता (असत्त्व-धर्म) का नास्ति भंग है। अतः सत्ता और असत्ता के भेद से अस्ति और नास्ति भंग में भेद है। इस प्रकार इन दोनों भंगों के उद्देश्यों में भेद होने से इन भंगों में भो भेद होना सिद्ध है।
इसी प्रकार उभय रूप "अस्ति नास्ति" भंग का भी अन्य भंगों से भेद है। इस भेद को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि "किसी समुदाय में उसके एक-एक अंग की अपेक्षा उभय रूप समूह कथंचित् भिन्न हो है, जैसे प्रत्येक घकार तथा टकार की अपेक्षा, क्रम से योजित धकार और टकार का समूह रूप "घट" पद भिन्न है यह सब वादियों को स्वीकृत है। यदि “घट" पद को धकार तथा टकार से सर्वथा अभिन्न माना जाय तो केवल घकार या टकार के ही उच्चारण से "घट" पद का ज्ञान हो जाना चाहिए। किन्तु, यदि धकार के ही उच्चारण से "घट" पद का बोध हो तो शेष उच्चारण व्यर्थ हो जायेगा । यही कारण है कि प्रत्येक पुष्प की अपेक्षा माला को कथंचित् भिन्न माना जाता है यह बात सबको अभिप्रेत है। इसी आधार पर यह कहा जा सकता है कि "स्यादस्ति या स्यान्नास्ति भंग को अपेक्षा क्रमापित उभय रूप "स्यादस्ति च नास्ति" भंग भिन्न ही है।
तृतीये क्रमाप्तियोस्सत्त्वासत्त्वयोः, चतुर्थे त्ववक्तव्यत्वस्य, पंचमे सत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वस्य, षष्ठे चासत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वस्य, सप्तमे क्रमार्पित सत्त्वासत्त्व
विशिष्टावक्तव्यत्वस्येति विवेकः । -सप्तभंगोतरङ्गिणी, पृ० ९. १. "स्वरूपाद्यवच्छिन्नमसत्त्वमित्यवच्छेदक भेदात्तयोर्भेदसिद्धः। अन्यथा स्वरूपेणेव पररूपेणापि सत्त्वप्रसंगात् । पररूपेणेव स्वरूपेणाप्यसत्त्वप्रसंगाच्च" ।
-वही, पृ० ११. २. प्रत्येकापेक्षयोभयस्य भिन्नत्वेन प्रतीतिसिद्धत्वात् । अतएव प्रत्येक घकार
टकारापेक्षया क्रमापितोभयरूपं घटपटमतिरिक्तमभ्युपगम्यते सर्वैः प्रवादिभिः ।
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