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________________ २१६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या कहना सार्थक हो सकता है । इस सन्दर्भ में जैन दार्शनिकों के दृष्टिकोण पर गम्भीरता पूर्वक विचार करना अपेक्षित है । जैन आचार्यों ने सप्तभंगी के प्रत्येक भंग को पृथक्-पृथक् दृष्टिकोण पर आधारित और नवीन तथ्यों का उद्भावक माना है । सप्तभंगोतरंगिणी में इस विचार पर विस्तृत विवेचन किया गया है । उसमें लिखा है "प्रथम भंग में मुख्य रूप से सत्ता के सत्त्व धर्म की प्रतोति होती है और द्वितीय भंग में असत्ता की प्रमुखता पूर्वक प्रतीति होती है । तृतीय “स्यादस्ति च नास्ति" भंग में सत्त्व, असत्त्व की सहयोजित किन्तु क्रम से प्रतोति है; क्योंकि प्रत्येक वस्तु में एक दृष्टि से सत्त्व धर्म है तो अपर दृष्टि से असत्त्व धर्म भी है । चतुर्थ भंग अवक्तव्य में सत्त्व असत्त्व धर्म की सहयोजित किन्तु अक्रम अर्थात् युगपत् भाव से प्रतीति होती है । पंचम भंग में सत्त्व धर्म सहित अवक्तव्यत्व की, षष्ठ भङ्ग में असत्त्व धर्म सहित अवक्तव्यत्व की और सप्तम भङ्ग में क्रम से योजित सत्त्व असत्त्व सहित अवक्तव्यत्व धर्म की प्रतीति प्रधानता से होती है । इस तरह प्रत्येक भङ्ग को भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्दु वाला समझना चाहिए ।' इस प्रकार स्पष्ट है कि सप्तभङ्गी के प्रत्येक भङ्ग में भिन्न-भिन्न तथ्यों की प्रधानता है । प्रत्येक भङ्ग वस्तु के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करते हैं । इसलिए सप्तभङ्गी के सातों भङ्ग एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं । किन्तु, इससे यह नहीं समझना चाहिए कि सप्तभङ्गो के प्रत्येक कथन पूर्णतः निरपेक्ष हैं । वे सभी सापेक्ष होने से एक दूसरे से सम्बन्धित भी हैं । यदि उनके इस सम्बन्ध को न माना जाय तो सप्तभङ्गी की सप्तभङ्गिता ही विनष्ट हो जायेगी । एक भङ्ग का दूसरे भङ्ग से कोई मतलब ही नहीं रहेगा । अतः सभी भङ्ग परस्पर सम्बन्धित भी हैं ऐसा मानना चाहिए। किन्तु, जहाँ तक उनके परस्पर भिन्न होने की बात है वहाँ तक तो वे अपनेअपने उद्देश्यों को लेकर ही परस्पर भिन्न हैं । उनकी इस भिन्नता को भी जैन आचार्यों ने विभिन्न प्रकार के दृष्टान्तों के आधार पर सिद्ध किया है । सप्तभङ्गीतरंगिणी में कहा गया है कि " सत् की सत्ता स्वचतुष्टय से है, पुनः सत् को सत् रूप में रहने के लिए असत् की अपेक्षा है और असत् को असत् रूप में होने के लिए सत् की अपेक्षा है । इस प्रकार सत् और असत् १. प्रथमे भङ्गे सत्त्वस्य प्रधान भावेन प्रतीतिः, द्वितीय पुनरसत्त्वस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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