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उपसंहार
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(४) अवक्तव्य की तुलना लुकासीविज़ के संदिग्ध सत्यता मूल्य से इसलिए भी नहीं बैठती है कि अवक्तव्य संदिग्धात्मक या संदेहात्मक है ही नहीं । यद्यपि उसमें अस्ति और नास्ति दोनों पक्षों का समावेश है किन्तु उसमें वह अस्ति और नास्ति पक्ष उस रूप में स्वीकृत नहीं है, जिस रूप में नय या लुकासीविज़ के तृतीय सत्यता-मूल्य में प्रायिकता स्वीकृत है । लुकासीविज़ ने तृतीय सत्यता-मूल्य का निर्धारण करते हुए कहा था"मैं बिना किसी विरोध के यह कल्पना कर सकता हूँ कि वारसा (पोलैण्ड का एक नगर है) में अगले वर्ष के किसी निश्चित क्षण में, जैसे २१ दिसम्बर के दोपहर में, मेरी उपस्थिति इस समय न तो स्वीकारात्मक ढंग से और न तो निषेधात्मक ढंग से निश्चित की जा सकती है। इसलिए यह संभव है। लेकिन निश्चित रूप से नहीं कि मैं दिये हुए समय पर वारसा में उपस्थित हो सकंगा। इस अवधारणा के अनुसार तर्कवाक्य "मैं अगले वर्ष २१ दिसम्बर के दोपहर को वारसा में उपस्थित रहूँगा" इस समय (वर्तमान काल में) न तो सत्य हो सकता है और न तो असत्य; क्योंकि यदि यह इस समय सत्य हो तो वारसा में मेरी भविष्यकालीन उपस्थिति आवश्यक होगी, जो कि इस अवधारणा के विपरीत है। दूसरी तरफ यदि यह इस समय असत्य है तो वारसा में मेरी भविष्यकालीन उपस्थिति असंभव होगी। जबकि यह भी उक्त कल्पना के विपरीत है । इसलिए इस समय निश्चित किया गया है कि यह तर्कवाक्य न तो सत्य है न तो असत्य । इसलिए यह एक तीसरा मूल्य रखता है, जो असत्य या शून्य (0) या सत्य अथवा एक (1) से भिन्न है। (यहाँ "0" का अर्थ है पूर्ण असत्य और "1" का अर्थ है पूर्ण सत्य)। इस मूल्य को हम 1/2 से स्थापित कर सकते हैं।' किन्तु, अवक्तव्य की अवधारणा इस प्रकार की नहीं है जब दो या दो से अधिक धर्मों का प्रतिपादन एक साथ करना हो तो वहाँ निश्चित रूप से अवक्तव्य ही होगा। चाहे वह भविष्य काल में हो या भूतकाल में हो अथवा वर्तमान काल में हो । वस्तुतः वह एक निश्चित उद्देश्य रखता है । इसलिए उसे संदिग्धात्मक मूल्य नहीं दिया जा सकता है।
(५) लुकासीविज़ का तृतीय सत्यता मूल्य भविष्यकालीन घटना पर 'निर्भर करता है। जबकि अवक्तव्य ऐसा नहीं है । इसलिए अवक्तव्य की 3. See ---Many Valued Logic, By Nicholas Racher.
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