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________________ २१२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या उपर्यक्त विवेचन में प्रमाण सप्तभंगी और नयसप्तभंगी से भिन्न किसी अन्य सप्तभंगी को कल्पना की गयी है, जिसमें सुनय, नय और दुर्नय इन तीनों प्रकार के नयों का संयोग है। किन्तु ऐसी कल्पना जैनदर्शन को अभिमत नहीं हो सकती। अतः उपर्युक्त विवेचन को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता है। (२) प्रमाण सप्तभंगी में जिस प्रकार "अस्ति" भंग वस्तु के किसी अंश का कथन करता है उसी प्रकार "नास्ति" भंग वस्तु के किसी अंश का प्रतिपादन करना है अर्थात् नास्ति भङ्ग वस्तु के जिस पक्ष का उद्घाटन करता है वह पक्ष भी वस्तु में विद्यमान है। वस्तुतः नास्ति भंग भी एक नवीन और सत्य, सत्यता मूल्य वाला प्रकथन है। इसलिए इसे असत्य अर्थात् शून्य (0) मूल्यवाला भंग नहीं कहा जा सकता है। यह भी एक सत्य कथन है । अतः इसे दुर्नय कहना युक्तिसंगत नहीं है। (३) सप्तभंगी के अनुसार अवक्तव्य, किन्हीं दो या दो से अधिक धर्मों के युगपत् कथन करने की अशक्यता का सूचक है। जब दो या दो से अधिक धर्मों के कथन की विवक्षा एक साथ होती है तब वाणी मौन और शब्द असमर्थ हो जाता है। वाणी और शब्द की इसी विवशता को अभिव्यक्त करना अवक्तव्य का उद्देश्य है। अवक्तव्य का यह लक्ष्य निश्चित और सत्य है, कभी सत्य, कभी असत्य या कभी संदिग्ध नहीं है। जबकि नय की अभिव्यक्ति कभी सत्य, कभी असत्य और कभी सत्य-असत्य दोनों अर्थात् संदिग्धात्मक होती है। इसी प्रकार लुकासीविज़ का तृतीय सत्यता-मूल्य भी सत्य,असत्य या सत्य/असत्य अथवा संदिग्धात्मक होता है। तब अवक्तव्य को नय जैसा स्वरूप वाला मानकर लुकासीविज़ के तृतीय सत्यता मूल्य से तुलना करना कैसे संभव है ? हाँ! अवक्तव्य को तब असत्य या शून्य (0) मान वाला कहा जा सकता है, जब यह पूछा जाय कि क्या अवक्तव्य वस्तु की किसी प्रायिकता का प्रतिपादन करता है ? जब दो या दो से अधिक धर्मों के युगपत् कथन की अपेक्षा होती है तो वहाँ पक्षात्मक प्रायिकता शून्य (0) होती हैं। क्योंकि वहाँ वस्तु के किसी भी पक्ष या अंश का वर्णन नहीं हो पाता है। इसलिए वहां इसे शून्य (0) मान वाला कह सकते हैं किन्तु स्याद्वाद के परिप्रेक्ष्य में इसे असत्य शून्य मूल्यवाला कहना असमीचीन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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