SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपसंहार २११ है । साथ ही प्रमाणनय, सुनय और दुर्नय की अलग-अलग परिकल्पना जैन दर्शन में नहीं है। जैन दर्शन केवल नय को अभिकल्पना करके यह स्पष्ट कहता है कि स्यात् पद से विशेषित सापेक्ष नय ही सुनय, प्रमाणनय अथवा सम्यक् नय होता है और स्यात् पद से अविशेषित निरपेक्ष नय, दूर्नय और असत्य होता है। किन्तु इसके विपरीत डॉ० पाण्डेय ने यह प्रतिस्थापित करने का प्रयत्न किया है कि अस्ति भंग "प्रमाणनय अर्थात् सुनय" नास्ति भंग “दुर्नय" और अवक्तव्य भंग "नय" हैं और इन भंगों का सत्यता मूल्य क्रमशः सत्य (1), असत्य(0) और सत्य/असत्य (12) है। सप्तभंगी में यहो मूल तीन भंग हैं। इन्हीं तीनों भंगों का मूल्य है और शेष चार भंग इन भंगों की व्याख्या या विस्तारण मात्र है। इनका कोई विशेष महत्त्व नहीं है। इसलिए सप्तभंगी त्रि-मल्यात्मक है। किन्तु, सप्तभंगी की यह व्याख्या प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती है। यद्यपि यह सप्तभंगी की एक नवीन व्याख्या का प्रयास अवश्य है किन्तु इसमें अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं जिसमें से कुछ अधोलिखित हैं (१) सर्वप्रथम, स्याद्वादीय सप्तभंगी प्रमाण सप्तभंगी है इसलिए उसके प्रत्येक भंग प्रमाण अर्थात् सत्य है अप्रमाण अर्थात असत्य नहीं। यद्यपि वे सभी भंग वस्तु का आंशिक कथन करते हैं तथापि उनको इनकार नहीं किया जा सकता। सत्य होने के लिए हो तो सप्तभंगी का प्रत्येक भंग “स्यात्" पद से विशेषित होता है। तब उसके “अस्ति" भंग को प्रमाणनय अर्थात् सुनय अर्थात् सत्य, "नास्ति" को दर्नय अर्थात् असत्य और अवक्तव्य को नय अर्थात् सत्य + असत्य या दोनों कहना कहाँ तक सार्थक है ? दूसरे, प्रमाण, नय और दुर्नय जैन-दर्शन के भिन्न-भिन्न सिद्धान्त हैं। सप्तभंगी का विकास इन सिद्धान्तों से नहीं हुआ है । ये सिद्धान्त उसके भंगों की सत्यताअसत्यता का निर्धारण मात्र करते हैं। इसलिए सप्तभंगी को इन सिद्धान्तों से विकसित मानना या इन सिद्धान्तों को सप्तभंगी के मूलभंग मानना युक्तिसंगत नहीं है। तीसरे, सप्तभंगी के यदि किसी भंग को प्रमाणनय (सत्य) कहते हैं तो उसके सभी भंगों को प्रमाणनय (सुनय) कहना होगा। किसी को प्रमाणनय तो किसी को दुर्नय नहीं। चौथे, यदि उपर्युक्त व्याख्या को नय सप्तभंगी की व्याख्या माना जाय तो वह भी सार्थक नहीं प्रतीत होता; क्योंकि नय सप्तभंगी में भी केवल नयों का ही समूह है। उसमें सुनय, नय और दुर्नय सभी नयों का समावेश नहीं है । इसलिए ऐसा स्पष्ट होता है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy