SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या १ - प्रमाणनय सत्य है और दुर्नय असत्य है । नय असत्य और सत्य के बीच में है । यदि प्रमाण नय की सत्यता "1" (सत्य) है तो दुर्नय की सत्यता (असत्य) "0" है और नय की सत्यता " 1/2 " ( सत्य / असत्य) है, ऐसा जैन दर्शन से अभ्युपगमित होता है। लुकासीविज़ इस अभ्युपगम को मानते हैं। दोनों सत्यता और असत्यता के अतिरिक्त एक तृतीय मूल्य को मानते हैं, जिसे अवक्तव्यता या अनिरूप्यता या अनभिलाप्यता कहा जाता है । २१० २- क अथवा अ-क उस व्यंजक में यदि "क" का सत्यता मूल्य अनभिलाप्य ( इंडिटर्मिनेट) है तो " अ-क" का भी मूल्य अनभिलाप्य है । अतएव लुकासीविज़ और जैन दर्शन दोनों में "क" अथवा " अ-क" का सत्यता मूल्य सत्य नहीं वरन् अनभिलाप्य है । परन्तु द्वि- मूल्यीय तर्कशास्त्र के अनुसार "क" और " अ-क" यह व्यंजक निर्मध्य नियम का प्ररूपक है और सर्वथा सत्य है । जैनदर्शन और लुकासीविज़ दोनों इसका खण्डन करते हैं । ३– "क" और "अ-क" यह व्यंजक द्वि-मूल्यीय तर्कशास्त्र के आधार पर सर्वथा असत्य है - परन्तु जैन दर्शन और लुकासीविज़ के अनुसार अनभिलाप्य है । अतएव दोनों बाध नियम का खण्डन करते हैं और एक तर्कविधि प्रस्तुत करते हैं, जिससे बाध नियम अस्वीकृत या तिरस्कृत हो जाता है । ४- अनभिलाप्यता का मूल प्रतिषेध नियम से भी अनुशासित नहीं है जैसे सत्यता का निषेध असत्यता है । वैसे अनभिलाप्यता का निषेध अभिलाप्यता नहीं वरन् अनभिलाप्यता ही हैं। फिर जैन दर्शन लुकासोविज़ की ही तरह द्विधा निषेध नियम (लॉ आफ डबल निगेशन) को भी नहीं मानता है और इसी कारण वह बौद्धों के अन्यापोह का खण्डन करता है । बौद्धों का अपोहवाद द्विधा निषेध नियम पर आधारित है और कहता है कि "गो" का अर्थ "अगो" नहीं है अर्थात् "गो = ना = अगो । इस अपोहवाद का खण्डन जैन दर्शन की एक मौलिक विशेषता है। जो निर्दिष्ट करती है कि जैन दर्शन द्विधा निषेध का खण्डन करता हैं । इन समानताओं के कारण जंन तर्कशास्त्र का तार्किक सम्बन्ध लुकासीविज़ के त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र से है । इस प्रकार डॉ० संगमलाल पाण्डेय ने जैन सप्तभंगी को त्रिमूल्यात्मक सिद्ध करने का प्रयत्न किया है । यद्यपि जैन सप्तभंगी त्रिमूल्यात्मक नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy