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जैन न्याय में सप्तभंगी
१२९ ऐसे कथनों में अनिश्चयात्मकता है। दूसरे शब्दों में, इसमें संशयात्मकता का बाहुल्य होता है।
यद्यपि संजयबेलट्रिपुत्त संशयवादी दार्शनिक हैं, तथापि उनका संशयवादी विचार उन्हीं चारों कोटियों के द्वारा मुखरित होता है। इसीलिए पण्डित राहुल सांकृत्यायन आदि विचारकों ने संजय की वर्णन-शैली को स्याद्वाद का आधार मान लिया था। इस संदर्भ में उनका विचार अवलोकनीय है। उन्होंने लिखा है कि "आधुनिक जैन-दर्शन का आधार "स्याद्वाद" है, जो मालूम होता है संजयबेलट्टिपुत्त के चार अंगवाले अनेकान्तवाद को लेकर उसे सात अंगवाला किया गया है। राहुल जी संजय के जिन कथनों से स्याद्वाद की तुलना करना चाहते हैं उनके वे कथन निम्नलिखित
(१) है ?-नहीं कह सकता, (२) नहीं है ?-नहीं कह सकता, (३) है भी और नहीं भी ? नहीं कह सकता, (४) न है और न नहीं है ?-नहीं कह सकता।
पं० राहुल सांकृत्यायन के अनुसार संजय के इन्हीं चारों कथनों से सप्तभंगी की उत्पत्ति हुई है। उन्होंने इन चारों कथनों से सप्तभंगी की तुलना करते हुए निम्नलिखित विवरण प्रस्तुत किया है
इसकी तुलना कीजिए जैनों के सात प्रकार के स्याद्वाद से(१) है ?-हो सकता है ( स्यात अस्ति ) (२) नहीं है ?- नहीं भी हो सकता है (स्यात् नास्ति) (३) है भी और नहीं भी ?-है भी, हो सकता है और नहीं भी हो
सकता हैं (स्यादस्ति च नास्ति च) उक्त तीनों उत्तर क्या कहे जा सकते (= वक्तव्य हैं) ? इसका उत्तर जैन "नहीं" में देते हैं। (४) "स्यात्" ( हो सकता है) क्या यह कहा जा सकता (=वक्तव्य)
है ?-नहीं, स्यात् अवक्तव्य है। १. दर्शन-दिग्दर्शन, पृ० ४९६ २. वही।
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