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________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १३१ होती है। अतः उसे संजयबेलठ्ठिपुत्त का मौलिक योगदान नहीं माना जा सकता। प्रश्न के संदर्भ में उपस्थित इन चार विकल्पों का उत्तर तो संजय निषेध रूप से देते हैं। जबकि जैन-दर्शन उनका उत्तर विधि-मुख से देता है। प्रत्येक विकल्प के सम्बन्ध में संजय कहते हैं कि “ऐसा भी नहीं है", "वैसा भी नहीं है", "अन्यथा भी नहीं है" जब कि जैन-परम्परा कहती है कि "ऐसा भी है", "वैसा भी है", "अन्यथा भी है" | अतः जैन-सप्तभङ्गी को संजय की चतुर्भङ्गी से निष्पन्न बताना सर्वथा अनुचित है। इस प्रश्न के संदर्भ में प्रो० महेन्द्र कुमार जैन ने बड़ी गम्भीरता से विचार किया है। उन्होंने लिखा है कि "बुद्ध और संजय ही क्या, उस समय के वातावरण में आत्मा, लोक, परलोक और मुक्ति के स्वरूप के सम्बन्ध में सत्, असत्, उभय और अनुभय या अवक्तव्य ये चार कोटियाँ गंजती थीं। जिस प्रकार आज का राजनैतिक प्रश्न "मजदूर और मालिक' शोष्य और शोषक के द्वन्द्व की छाया में ही सामने आता है, उसी प्रकार उस समय के आत्मादि अतीन्द्रिय पदार्थ-विषयक प्रश्न चतुष्कोटि में ही पूछे जाते थे। वेद और उपनिषद् में इस चतुष्कोटि के दर्शन बराबर होते हैं । "यह विश्व सत् से हुआ या असत् से ? यह सत् है या असत् या उभय या अनिर्वचनीय" ये प्रश्न जब सहस्रों वर्ष से प्रचलित रहे हैं तब राहुल जी का स्याद्वाद के विषय में यह फतवा दे देना कि "संजय के प्रश्नों के शब्दों से या उसकी चतुर्भङ्गी को तोड़-मरोड़ कर सप्तभङ्गी बनो"-कहाँ तक उचित है, इसका वे स्वयं विचार करें।" एक अन्य बात यह भी है कि परलोक, देवता, कर्मफल और मुक्ति के सम्बन्ध में संजय के विचार अनिश्चयवादी हैं, क्योंकि वे इन संदर्भो में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि "यदि मुझसे ऐसा पूछे, तो मैं यदि ऐसा समझता होऊँ...." तो ऐसा आप को कह" । अर्थात् इस विषय में उनका कोई निश्चित अभिप्राय नहीं है। जबकि बुद्ध ऐसे प्रश्नों को अव्याकृत कहते हैं और उनके अव्याकृत कहने का कारण यह है कि ये साधना के लिए अनुपयोगी हैं। वे कहते हैं कि "इनके बारे में कुछ कहना सार्थक नहीं, भिक्षुचर्या के लिए उपयोगी नहीं, न यह निर्वेद के लिए, न निरोध के लिए; न १. जैन-दर्शन, पृ० ३८६-८७ । २. दर्शन-दिग्दर्शन, पृ० ४९१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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