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अनेकान्तिक दृष्टि का विकास
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हे भगवन् ! जीव सकम्प हैं या निष्कम्प ? हे गौतम ! जीव सकम्प भी हैं और निष्कम्प भी।' भगवन् ! जीव की सबलता अच्छी है या दुर्बलता? जयन्ती! कुछ जीवों की सबलता अच्छी है और कुछ जीवों की
दुर्बलता।२
इस प्रकार हमें जैन एवं बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में विभज्यवाद, अब्याकृतवाद के सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं । जहाँ तक बुद्ध और महावीर की विभज्यवादी दृष्टि का प्रश्न है ऐसा नहीं लगता है कि दोनों में कोई मूलभूत अन्तर हो । विभज्यवाद में दोनों ही कथ्य सम्बन्धी विरोध को विधिमुख से स्वीकार करते हैं। मज्झिमनिकाय और भगवतीसूत्र के पूर्व प्रस्तुत सन्दर्भो को देखने से इसी बात की पुष्टि होती है।
जहाँ तक अव्याकृतता और अवक्तव्यता का प्रश्न है, जैन और बौद्ध दष्टिकोण थोड़े भिन्न प्रतीत होते हैं। बुद्ध जिन संदर्भो में अव्याकृतता को स्वीकार करते हैं वहाँ ऐसा लगता है कि वे उसे समग्र रूप से ही स्वीकार कर रहे हैं। जो प्रश्न अव्याकृत हैं वे पूरी तरह से अव्याकृत हैं। उन्हें किसी भी रूप में व्याकृत नहीं किया जा सकता। जबकि जैन-परम्परा में जिस अवक्तव्यता को स्वीकार किया गया है। वह अवक्तव्यता भी निरपेक्ष नहीं सापेक्ष ही है। जो अवाच्य या अवक्तव्य है, वह वक्तव्य भी है और जो वक्तव्य है, वह अवक्तव्य भी है। दूसरे शब्दों में जैन दष्टि से सत्ता अंशतः वाच्य और समग्रतः अवाच्य है । उसमें वाच्यता और अवाच्यता दोनों ही सापेक्ष रूप से स्वीकृत हैं। इस प्रकार बुद्ध का अव्याकृतवाद जैन परम्परा की अवक्तव्य की धारणा से किसी सीमा तक भिन्न है। यद्यपि दोनों ही अवक्तव्यता को स्वीकार करते हैं, तथापि दोनों की अवक्तव्यता सम्बन्धी अवधारणायें एक नहीं कही जा सकती। इस सम्बन्ध में उनमें आंशिक समानता और आंशिक असमानता है।
१. भगवतीसूत्र भाग ७, २५:४:३५। २. भगवतीसूत्र भाग ४, १२:२:८ । ३. विशेष जानकारी के लिए देखें-'सत्ता कितनी वाच्य कितनी अवाच्य ?
जैन दर्शन के संदर्भ में ।" लेखक-डा० सागरमल जैन । प्रकाशित-तुलसी प्रज्ञा-अक्टूबर, नवम्बर १९८१ ।
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