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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या को आराधक और अनाराधक दोनों ही बताकर अपने आप को विभज्यवादी सिद्ध किया। वस्तुतः वे ऐसे प्रश्नों के उत्तर में विभज्यवादी थे, एकांशवादी नहीं।
किन्तु यहां पर यह ध्यान रखना चाहिए कि बुद्ध सर्वदा सभी प्रश्नों के उत्तर में विभज्यवादी नहीं थे। वे केवल उन्हीं प्रश्नों के उत्तर में विभज्यवादी थे जिनके उत्तर विभज्यवाद के सहारे देना संभव था । वस्तुतः कुछ प्रश्नों के उत्तर में वे विभज्यवादी थे तो कछ प्रश्नों के उत्तर में एकांशवादी भी थे। दीघनिकाय में उन्होंने कहा भी है कि "पोट्रपाद ! हमने कितने ही धर्म को एकांशिक कहा है और कितने ही धर्म को अनेकांशिक भी कहा है।' परन्तु अधिकांश प्रश्न ऐसे थे जिनका समाधान वे विभज्यवाद के सहारे किया करते थे। दीघनिकाय में कहा गया है कि "मैं केवल चार आर्य सत्यों के सम्बन्ध में ही एकांशवादी हैं। अतएव यह कहा जा सकता है कि सामान्यतया बुद्ध विभज्यवादी ही थे ।
जैन-आगमों में भी इसी विभज्यवाद का उल्लेख मिलता है। भिक्षु को कैसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए इसके उत्तर में महावीर ने कहा है कि भिक्षु "विभज्यवाद" का प्रयोग करें। भगवतीमूत्र में इस विभज्य. वाद का लक्षण निम्न उद्धरण में प्राप्त होता है
हे भगवन् ! क्या जीव, सवीर्य ( वीर्यवाले ) हैं ? या अवीर्य ( वीर्यरहित) हैं ?
हे गौतम ! जीव सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी । हे भगवन् ! क्या नारकीय जीव सवीर्य हैं या अवीर्य हैं ?
हे गौतम ! नारकीय जीव, लब्धिवीर्य से सवीर्य हैं और करणवीर्य से सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं।
१. दीघनिकाय भाग-१, ९:४ पोट्टपादसुत्तं)। २. वही। ३. "भिवखू ! विभज्जवायं च वियागरेज्जा।"
-सूत्रकृतांगसूत्र-१:१:१४:२२ । ४. भगवतीसूत्र भाग १, १:८:२७५-२७७ ।
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