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२८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय को आधुनिक व्याख्या ___ जैन एवं बौद्ध परम्परायें एकान्तिक धारणाओं के निराकरण के सन्दर्भ में दो भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण अपनाती हैं। जहां बौद्ध परम्परा उभय विकल्पों का निषेध करती है वहाँ जैन परम्परा उन उभय विकल्पों को स्वीकार करके चलती है, जहाँ बौद्ध दृष्टि विश्लेषणात्मक और निषेधात्मक है वहाँ जैन दृष्टि संश्लेषणात्मक और स्वोकारात्मक है। बौद्ध परम्परा निषेध मुख से दोनों ही विकल्पों को अस्वीकार कर देती है और जैन परम्परा विधि मुख से दोनों हो विकल्पों को सापेक्ष रूप से स्वीकार करती है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जहाँ महावीर का विभज्यवाद अपने मूल स्वरूप को स्थिर रखते हुए विधिमूलक पद्धति के द्वारा विकसित होकर अनेकान्तवाद में पर्यवसित हुआ वहाँ बुद्ध का विभज्यवाद अव्याकृतवाद और निषेधमूलक पद्धति के माध्यम से गुजरता हुआ अन्त में शून्यवाद में पर्यवसित हो गया। (३) जैन-परम्परा में समन्वय का प्रयास
बौद्ध एवं जैन दार्शनिकों का यह विचार है कि कोई भी एकान्तिक मान्यता सत्य नहीं होती है। अतः सभी एकान्तिक मान्यताओं से दूर रहना ही इन दर्शनों का मुख्य उद्देश्य रहा है। बुद्ध इन एकान्तिक मान्य. ताओं से बचने के लिए ही तात्विक प्रश्नों के सन्दर्भ में अक्सर या तो मौन धारण कर लेते थे या फिर उन्हें अव्याकृत कहकर टाल देते थे। यद्यपि कभी-कभी विभज्यवाद के आधार पर उन प्रश्नों का सम्यक विश्लेषण कर उत्तर देने का प्रयास भी करते थे; जबकि महावीर एकान्तिक मान्यताओं से दूर रहने के लिए तात्त्विक समस्याओं के संदर्भ में सर्वथा एकान्तिक कथनों का प्रतिषेध कर विभज्यवादी एवं सापेक्ष कथन पद्धति के द्वारा उनका उत्तर देते थे। इन दोनों ही महापुरुषों की दृष्टि में पूर्ण एकान्तिक दृष्टि सत्यता का प्रतिषेध करतो है। यही कारण है कि इन्होंने किसी भी एकान्तिक विचारधारा का अनुगमन नहीं किया और अपने युग में प्रचलित एकान्त उच्छेदवादो तथा शाश्वतवादी दृष्टियों का विरोध किया। इसीलिए वे किसी भी वस्तु को न तो मात्र नित्य कहना चाहते थे और न तो मात्र अनित्य । किन्तु जहाँ बुद्ध ने दोनों हो मन्तव्यों का निषेध कर अशाश्वतानुच्छेदवाद का समर्थन किया और औपनिषदिक् नेति-नेति की तरह
१. देखें-जैन भाषादर्शन, डॉ० सागरमल जैन पृ० ९-१० ।
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