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ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता
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दिता पर निर्भर करता है जबकि दूसरे में ज्ञान की संवादिता वस्तु से न - होकर स्वयं ज्ञान से ही है, क्योंकि यहाँ ज्ञेय स्वयं ज्ञान है । इस प्रकार जैनों का यह मानना कि ज्ञान स्व-स्वरूप की अपेक्षा से स्वतः प्रामाण्य होता है उचित ही हैं किन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि यहाँ उसका मिथ्या होना बाह्यार्थ पर निर्भर नहीं करता अर्थात् जब ज्ञान ही ज्ञेय होता है तो उसकी प्रामाणिकता स्वयं ज्ञान पर ही निर्भर करती है न कि वस्तु पर । किन्तु जब ज्ञान का प्रमेय या ज्ञेय बाह्यार्थ होता है तो उसकी प्रामाणिकता वस्तु ( बाह्यार्थ ) पर निर्भर करती है और इस दृष्टि से ज्ञान को परतः प्रामाण्य मानना भी उचित है । संक्षेप में कहें तो ज्ञान, ज्ञान के रूप में स्वतः प्रामाण्य है और बाह्यार्थ के प्रकाशक के रूप में ज्ञान परतः प्रामाण्य होता है । आप्तमीमांसा में कहा गया है कि बाह्य अर्थ को प्रमेय मानने की अपेक्षा से ज्ञान प्रमाण और प्रमाणाभास ( अप्रमाण ) दोनों होता है ।"
इसलिए यथार्थ और अयथार्थ ज्ञान की ये दोनों कोटियाँ बाह्य वस्तुओं से उस ज्ञान की संवादिता पर ही निर्भर करती हैं । जो ज्ञान बाह्यार्थ अर्थात् ज्ञेय वस्तु का संवादी होता है वह यथार्थ और जो विसंवादी होता है वह अथार्थ होता है । दूसरे शब्दों में, ज्ञान तभी सत्य होता है जब वह ज्ञेय वस्तु के अनुरूप हो । यदि ज्ञान ज्ञेय वस्तु के अनुरूप नहीं है तो वह असत्य हो जाता है । इस बात का स्पष्टीकरण डॉ० महेन्द्र कुमार जैन ने इस प्रकार किया है कि "ज्ञान प्रमाण और प्रमाणाभास" इनकी व्यवस्था बाह्य अर्थ के प्रतिभास करने और प्रतिभास के अनुसार बाह्य पदार्थ के प्राप्त होने और न होने पर निर्भर करती है । जिस ज्ञान का प्रतिभासित पदार्थ ठीक उसी रूप में मिल जाय जिस रूप में उसका बोध हुआ है तो वह ज्ञान प्रमाण कहा जाता है अन्य (ज्ञान) प्रमाणाभास ( अप्रमाण ) | इसी बात का निरूपण करते हुए सिद्धिविनिश्चय में कहा गया है कि जिस ज्ञान का प्रतिभासित पदार्थ जैसा - का तैसा मिल जाता है वह अविसंवादी ज्ञान सत्य एवं प्रमाण है और शेष अप्रमाण । १. " बहिः प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते ।"
- आप्तमीमांसा, तत्त्वदीपिका, पृ० २७० ।
२. जैन दर्शन, पृ० १८८ ।
३. " यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता ।"
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- सिद्धिविनिश्चय, १:१९ को टीका में उद्धृत ।
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