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८४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
इस प्रकार ज्ञान की सत्यता-असत्यता, प्रमाणता-अप्रमाणता बाह्य वस्तुओं के अवबोधन पर निर्भर करती है। किन्तु ज्ञान की इस प्रमाणताअप्रमाणता का निश्चय भिन्न-भिन्न रीतियों से होता है। कुछ ज्ञान ऐसे होते हैं जिसकी प्रामाणिकता का निश्चय स्वतः ज्ञान से ही हो जाता है। किन्तु कुछ ज्ञान ऐसे भी होते हैं जिनकी प्रमाणता का निश्चय स्वतः नहीं हो सकता। उनकी प्रमाणता के लिए बाह्य-वस्तुओं का सहारा लेना पड़ता है। जिन ज्ञानों को प्रमाणता का निश्चय स्वतः ज्ञान से ही हो जाता है उन्हें स्वतः प्रामाण्य और जिनकी प्रमाणता का निश्चय स्वतः न होकर स्वतः प्रमाणभूत ज्ञानान्तर ज्ञान या बाह्य वस्तुओं से होता है उन्हें परतः प्रामाण्य कहते हैं।
स्वतः प्रामाण्य में ज्ञान की प्रामाण्यता या सत्यता का बोध स्वयं ज्ञान से ही होता है। उसके लिए किसी बाह्यार्थ का सहारा नहीं लेना पड़ता है। इस प्रकार जब ज्ञान अपनी प्रामाणिकता को स्वतः प्रकट कर दे, तो वह ज्ञान स्वतः प्रामाण्य कहा जायेगा। दूसरे शब्दों में, जब ज्ञान की सत्यता की कसौटी ज्ञान स्वयं हो तो वह स्वतः प्रामाण्य है। जैसे त्रिभुज तीन भुजाओं से घिरी हुई एक आकृति है। यहाँ त्रिभुज के तीन भुजाओं वाला होने का ज्ञान सत्य है। इसके लिए हमें त्रिभुज को देखने या प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती है। क्योंकि "त्रिभुज" पद ही एक ऐसा पद है, जो उसके तीन भुजाओं वाला होने का ज्ञान देता है। दूसरी बात यह है कि हम पूर्व से भी त्रिभुज से परिचित हैं कि वह (त्रिभुज) तीन भुजाओं वाला ही होता है। वस्तुतः उस पूर्व के अभ्यास से भी उक्त ज्ञान की प्रामाणिकता निश्चित होती है। जैन-दर्शन में स्वतः प्रामाण्य के निश्चय हेतु अभ्यास-दशापन्न ज्ञान को स्वीकार किया गया है। परीक्षामुख में कहा गया है कि अभ्यासदशा में ज्ञान स्वतः प्रामाण्य होता है। किन्तु कुछ ज्ञान ऐसे भी हैं जिनकी प्रामाणिकता का निश्चय स्वतः यानी तद् ज्ञान से ही नहीं हो सकता। उनके प्रामाण्य-निश्चय के लिए बाह्य वस्तुओं या स्वतः प्रमाणभूत ज्ञानान्तर ज्ञान का सहारा लेना पड़ता है। उसके लिए ज्ञानोपरान्त प्रमेय यानी ज्ञेय वस्तु के परीक्षण आदि की आवश्यकता पड़ती है, अर्थात् वस्तु का ज्ञान प्राप्त होने के बाद हम उस वस्तु के पास जाकर
१. "अभ्यासदशायां स्वतोऽनभ्यासदशायां च परतः इति" ।
-परीक्षामुखम्, १:१३ की टीका ।
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