________________
ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता
८५
उसकी परीक्षा करते हैं कि वस्तु हमारी पूर्व प्रतीत्यानुरूप है अथवा नहीं । यदि वह पूर्व प्रतीति के अनुरूप ही है तो वह पूर्व प्रतीति रूप ज्ञान सत्य यानी प्रामाणिक होगा । अन्यथा असत्य अर्थात् अप्रामाणिक हो जायेगा । वस्तुतः ऐसे ज्ञान की प्रामाणिकता के लिए बाह्य वस्तुओं पर निर्भर करना पड़ता है ।
इस प्रकार ज्ञान की प्रमाणता अप्रमाणता का निश्चय उपर्युक्त दो विधियों से होता है । स्वतः और परतः जैन दर्शन में ज्ञान की प्रामाण्यताअप्रामाण्यता के निश्चय हेतु ये दोनों ही विधियाँ स्वीकृत हैं । जानने के साथ-साथ जब ऐसा निश्चय होता है कि यह जानना ठीक है तो वह स्वतः निश्चय है और जानने के साथ-साथ जब यह जानना ठीक है ऐसा निश्चय नहीं होता तब दूसरी कारण सामग्री से -संवादक प्रत्यय से उसका निश्चय किया जाता है तो वह परतः निश्चय होता है। वस्तुतः किसी-किसी परिस्थिति में ज्ञान - प्रामाण्य का निश्चय स्वतः होता है और किसी-किसी परिस्थिति में परत: । विद्यानन्द के अनुसार ज्ञान-प्रामाण्य अभ्यासदशा में स्वतः सिद्ध होता है और अनभ्यासदशा में परतः । '
इस प्रकार तदाकार रूप ज्ञान यथार्थ और अतदाकार रूप ज्ञान अयथार्थं होता है । यथार्थ ज्ञान प्रामाणिक और अयथार्थ ज्ञान अप्रामाणिक होता है । ज्ञान की प्रमाणता - अप्रमाणता का निश्चय जिसके कारण होता है वह है प्रामाण्य । प्रामाण्य का अर्थ है यथार्थ । प्रमाण जिस पदार्थ को जिस रूप में जानता है उसका उसी रूप में प्राप्त होना यानी प्रतिभास (ज्ञेय) विषय का अव्यभिचारी होना प्रामाण्य कहलाता है । यह प्रमाण का धर्म है । वस्तुतः ज्ञान का सत्य होना प्रामाण्य और असत्य होना अप्रामाण्य है । ज्ञान की इस प्रामाण्यता और अप्रामाण्यता के प्रतिपादन हेतु दार्शनिकों ने विभिन्न कसौटियों को स्वीकार किया है और विभिन्न कसौटियों के कारण ही दार्शनिकों ने सत्यता को विभिन्न रूप में परिभाषित किया है । यथार्थ, अबाधित्व, अप्रसिद्ध अर्थख्यापन या अपूर्व अर्थप्रापण, अविसंवादित्व या संवादो प्रवृत्ति, प्रवृत्ति-सामर्थ्यं या क्रियात्मक उपयोगिता के रूप
२
१. " प्रामाण्यं तु स्वतः सिद्धमभ्यासात्परतोऽन्यथा ।”
- प्रमाणपरीक्षा, परीक्षा ६३,
२. देखिये, जैन- दर्शन पृ० १९६; डॉ० महेन्द्रकुमार जैन ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org