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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या में सत्यता को विभिन्न परिभाषायें दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत और निराकृतः होती रही हैं । अब हम इनका विवेचन पृथक्-पृथक् रूप में करेंगे।
(अ) यथार्थ
यथार्थ शब्द दो शब्दों यथा + अर्थ से बना है। इसका तात्पर्य है अर्थ (ज्ञेय) का ज्ञान के अनुरूप होना। दूसरे शब्दों में, ज्ञान की तथ्य से संगति । जो ज्ञान ज्ञेय वस्तु के अनुरूप है वह सत्य या यथार्थ है। यद्यपि जो ज्ञान ज्ञेय वस्तु की प्रतीति करा रहा है वह भी ज्ञेयाकार होकर ही प्रमाण रूप होता है किन्तु ऐसा मानने पर सीप में चाँदी का प्रतिभास करने वाला ज्ञान भी प्रमाण यानी यथार्थ हो जायेगा । सामान्यतया ऐसा ज्ञान बाह्यार्थ से अपनी अविसंवादिता के कारण अयथार्थ अर्थात् अप्रमाण कहा जाता है तथापि ज्ञानानुभूति की अपेक्षा से वह (ज्ञान) भी प्रमाणरूप होता है। जैसे रज्जु में सर्प की प्रतीति “यह सर्प है" ऐसा ज्ञान संवादिता की दृष्टि से अप्रमाण है किन्तु "मैं यह जानता हूँ कि यह सर्प है" यह ज्ञानानुभूति तो अपने आप में प्रमाण ही है। इसलिए अनुभूति की तदाकारता की अपेक्षा से वह ज्ञान कथंचित् सत्य भी होता है। लेकिन उस ज्ञान में प्रतिभास के अनुरूप बाह्यार्थ की प्राप्ति नहीं होती। इसलिए उसे अयथार्थ माना जाता है। वस्तुतः ज्ञेय वस्तु जैसी है उसका उसी रूप में ग्रहण करने वाला ज्ञान यथार्थ होता है। (ब) अबाधित्व
अबाधित शब्द में अ+ बाध + क्त प्रत्यय का संयोग है। जिसका अर्थ है बाधारहित होना अथवा बाधविवजित होना । वह ज्ञान जो बाधा रहित हो या बाधविवर्जित हो, अबाधित ज्ञान कहलाता है और ज्ञान का बाधविवर्जित गुण सम्पन्न होना अबाधित्व है। यहाँ बाधित का अर्थ है निराकृत या खण्डित । वह ज्ञान जो किसी अन्य ज्ञान से निराकृत या खण्डित न हो, अबाधित ज्ञान कहलाता है । इस प्रकार ऐसे ज्ञान को यथार्थ या प्रमाण ज्ञान कहा जाता है। (स) अप्रसिद्ध अर्थ ख्यापन या अपूर्व अर्थ प्रापण
अप्रसिद्ध का अर्थ है अज्ञात, अर्थात् जो किसी अन्य प्रमाण से ज्ञात न हुआ हो और ख्यापन का अर्थ है उद्घाटन करना। इस प्रकार अप्रसिद्ध
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