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९६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या राजस्थान आदि प्रदेशों में "माता" का सूचक है। इसी प्रकार "लौण्डा" शब्द किसी प्रदेश में "पुत्र" का सूचक है तो किसी प्रदेश में “समलैङ्गिक युवा" का प्रतिपादक है। वस्तुतः ऐसे शब्दों का प्रयोग प्रदेश के अनुसार करना समुचित माना गया है और ऐसे सत्य वचन को जनपद सत्य कहते हैं।
(आ) सम्मत सत्य
वह शब्द प्रतीक जो किसी वस्तु को सर्वसम्मति से दे दिया गया है उसे उसी रूप में स्वीकार करना अथवा व्यवहृत करना सम्मत सत्य है । जैसेपंक से पंकज (कमल) के साथ ही मेढक आदि जीव भी उत्पन्न होते हैं। किन्तु सर्वसम्मति से कमल को ही पंकज कहा जाता है मेढक आदि जीवों को नहीं । वस्तुतः कमल को पंकज कहना सम्मत सत्य है ।
(इ) स्थापना सत्य
जिस वस्तु को जिस रूप में मान्य कर लिया गया है उसको उसी रूप में प्रयुक्त करना स्थापना सत्य है। जैसे किसी पत्थर की मूर्ति को किसी देवता के रूप में मान लेना स्थापना सत्य है।
(ई) नाम सत्य
जिस व्यक्ति या वस्तु को जो नाम दे दिया गया है उसको उसी नाम से पुकारना नाम सत्य है। उदाहरणार्थ-नयनसुख, चक्रधारी आदि । यद्यपि चक्रधारी चक्र को नहीं धारण करते हैं फिर भी उन्हें उनके नाम के अनुसार चक्रधारी कहना नाम सत्य है।
(उ) रूप सत्य
वेश-भूषा या आकृति के आधार पर किसी व्यक्ति या वस्तु का कथन करना रूप सत्य है । जैसे साधु के वेश को धारण किये हुए व्यक्ति को साधु कहना रूप सत्य है। चाहे अपने आचरण में वह पतित ही क्यों न हो। पर रूप के आधार पर उसे साधु कहना सत्य ही है।
(ऊ) प्रतीति सत्य
जो वस्तु जैसी दिखायी पड़ती है उसको उसी रूप में कहना प्रतीति सत्य है। जैसे चलती हुई रेलगाड़ी में से देखकर वृक्ष आदि को गतिमान बताना, सूर्य को अस्थिर और पृथ्वी को स्थिर बताना आदि ।
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