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________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता (ए) व्यवहार सत्य व्यवहार में जैसी भाषा का प्रयोग होता है वैसी ही भाषा का प्रयोग करना व्यवहार सत्य है। जैसे-गाँव आ गया, चूल्हा जल गया आदि कहना। यद्यपि गाँव नहीं आता अपितु हम पहुँचते हैं, चूल्हा नहीं जलता बल्कि लकड़ी जलती है किन्तु प्रतिदिन व्यवहार में उक्त भाषा का ही प्रयोग किया जाता है जिसे असत्य नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः वे कथन व्यवहार में सत्य हैं; क्योंकि व्यवहार में उनका ऐसा प्रयोग होता ही है । (ऐ) भाव सत्य किसी विशिष्ट गुण की प्रधानता के आधार पर वस्तु को तद्रूप कहना भाव सत्य है । जैसे-गुड़ में मिठास की प्रधानता के कारण उसे मीठा कहना। यद्यपि उसमें मिठास के अतिरिक्त खट्टापन या कसैलापन भी होता है। (ओ) योग सत्य किसी सम्बन्ध विशेष के आधार पर वस्तु या व्यक्ति का तद्रप प्रतिपादन करना योग सत्य है जैसे-दण्ड धारण करने वाले व्यक्ति को दण्डी, बनारस में रहने वाले व्यक्ति को बनारसी, कन्नौज में रहने वाले व्यक्ति को कन्नौजिया कहना । मात्र यही नहीं, यदि वे वर्तमान में उस गुण से युक्त नहीं हैं फिर भी पूर्व सम्बन्ध के आधार पर उन्हें उसी नाम से सम्बोधित किया जाता है। (औ) उपमा सत्य किसी वस्तु या व्यक्ति को उपमा के आधार पर विवेचित करना उपमा सत्य है। जैसे--चन्द्रमुखी, मृगलोचनी आदि । यद्यपि उपमा मात्र उपमा है। उपमा के कारण उस उपमेय और उपमान में कोई अनिवार्य और आवश्यक सम्बन्ध नहीं है। फिर भी उपमेय और उपमान में तुलना की जाती है । वस्तुतः ऐसे उपमा सम्बन्धी कथन को सत्य कहा जाता है। (२) पर्याप्तिक मृषा (असत्य) भाषा पन्नवणासूत्र की हिन्दी टीका में असत्य वचन (भाषा) का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि "जिस वचन से आत्मगुण की, सर्वज्ञ के वचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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