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९८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या की व मोक्ष पद की विराधना हो। वह असत्य भाषा है।' जिस भाषा में आत्मगत संगति न हो, सर्वज्ञ के वचन के विपरीत हो तथा जिससे मोक्ष प्राप्ति में बाधा हो, ऐसी भाषा असत्य होती है। जैन-आचार्यों ने इस असत्य भाषा को भी दस भेदों वाली बताया है। किन्तु असत्य भाषा के वे सभी भेद तार्किक न होकर साधुचर्यापेक्षित हैं। ऐसे वचनों को क्रोधादि कषायों के वशीभूत होकर व्यक्ति प्रायः बोल देते हैं; किन्तु इन वचनों को जैन आचार्यों ने मृषा और साधुचर्या में अव्यवहार्य बताया है। यहाँ इसके भेदों-प्रभेदों का विवेचन उपयुक्त नहीं है ।
२. अपर्याप्तिक भाषा जैन-दर्शन के अनुसार अपर्याप्तिक भाषा के भी दो प्रकार होते हैं :(१) अपर्याप्तिक सत्य मृषा भाषा
(२) अपर्याप्तिक अ-सत्य अ-मृषा भाषा (१) अपर्याप्तिक सत्यमषा भाषा
सत्य और असत्य से मिश्रित भाषा सत्य-मृषा भाषा है। इसे न तो पूर्णतः सत्य कह सकते हैं और न तो पूर्णतः असत्य । साथ ही इसे सत्य और असत्य से भिन्न भी नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि इसमें सत्य और असत्य दोनों ही समाहित हैं। वह भाषा जो सत्यता या असत्यता का निश्चयात्मक ज्ञान देने में असमर्थ हो उसे सत्यमृषा भाषा कहते हैं। जैनदर्शन में इसके भी दस भेद बताये गये हैं :
(क) उत्पन्न मिश्रक (ख) विगत मिश्रक (ग) उत्पन्न विगत मिश्रक (घ) जीव मिश्रक (ङ) अजीव मिश्रक
(च) जीवाजीव मिश्रक (छ) अनन्त मिश्रक (ज) परित्त मिश्रक (झ) अद्धा(काल) मिश्रक (ञ) अद्धद्धा (कालांश) मिश्रक (क) उत्पन्न मिश्रक
चूंकि प्रत्येक वस्तु परिणमनशील है। उसमें उत्पाद, विनाश और ध्रुवत्व का क्रम साथ-साथ चलता है। इसलिए “यह उत्पन्न हुआ" ऐसा १. पन्नवणा सूत्र, एकादस भाषापद्म-२ ।
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