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________________ ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता कहना सर्वथा सत्य नहीं हो सकता है। किन्तु इसे पूर्णतः असत्य भी नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि यह प्रक्रिया भी वस्तु में घटित होती है । इसलिए इसे सत्य और असत्य से मिश्रित माना जा सकता है। (ख) विगत मिश्रक उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यत्व की प्रक्रिया के साथ-साथ रहने के कारण "यह विनष्ट हो गया" ऐसा कहना भी पूर्णतः सत्य नहीं है। किन्तु सापेक्षतः यह कथन सत्य भी है। इसलिए इस कथन को भी जैन आचार्यों ने सत्यअसत्य मिश्रित कथन कहा है। (ग) उत्पन्न विगत मिषक चूंकि उत्पाद और विनाश दोनों ही किसी सत् (ध्रौव्यगुणयुक्त) वस्तु में पाये जाते हैं अतः उत्पत्ति और विनाश सम्बन्धी क्रमिक कथन को भी पूर्णतः सत्य नहीं कहा जाता है; क्योंकि जो उत्पन्न हो रहा है और जो नष्ट हो रहा है वह नित्य भी है । अतः उत्पत्ति और विनाश सम्बन्धी कथन भी सत्यता और असत्यता दोनों से युक्त है । अतः वह मिश्र कथन है । (घ) जोव मिश्रक पुद्गलाणुओं से निर्मित होने के कारण यह शरीर जड़ और इस शरीर में रहने वाला जीव चेतन है। इसलिए सशरीरी जीव शरीर की अपेक्षा से जड़ और जीव की अपेक्षा से चेतन है । अतः सशरीरी जीव को "मात्र चेतन कहना" सर्वथा सत्य नहीं है। यद्यपि इस कथन को सर्वथा असत्य भी नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि वह जीव की अपेक्षा से तो चेतन होता ही है। वस्तुतः ऐसे कथन को सर्वथा सत्य या सर्वथा असत्य न कहकर मिश्रित कथन ही मानना होगा। (ङ) अजीव मिश्रक __ सशरीरी जीव को मात्र अचेतन भी नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि वह जीव की अपेक्षा से चेतन होता है किन्तु शरीर के रूप में उसमें अचेतनता भी रहती है। वस्तुतः बद्ध या सशरीरी जीव अंशतः चेतन और अंशतः अचेतन होता है। अतः उसे अचेतन कहना भी न तो पूर्णतः असत्य होता है और न तो पूर्णतः सत्य । प्रत्युत वह सत्य-असत्य दोनों हो होता है। जैन-दर्शन की भाषा में इसे "अजीव मिश्रक" कथन कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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