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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
(च) जीवाजीव मिश्रक
जैन आचार्यों के अनुसार जीव और अजीव अथवा शरीर और आत्मा के एकत्व और भिन्नत्व का प्रतिपादन निरपेक्षतया संभव नहीं है । इसलिए उसके भिन्नत्व और अभिन्नत्व सम्बन्धी प्रश्नों को न तो सत्य कहा जा सकता है और न तो असत्य । इसलिए इन्हें सत्य और असत्य दोनों ही कहा जा सकता है । वस्तुतः ऐसे कथनों को जीवाजीव मिश्रक भाषा में रखा जाता है ।
(छ) अनन्त मिश्रक
विश्व की प्रत्येक वस्तु किसी अपेक्षा से अनन्त है तो किसी अपेक्षा से सान्त भी है । इसलिए उसे मात्र अनन्त कहना न तो सत्य है और न तो असत्य है । वस्तुतः ऐसे कथन को अनन्त मिश्रक कथन कहना चाहिए |
(ज) परित्त मिश्रक
यद्यपि परित्त मिश्रक का अर्थ "प्रत्येक मिश्रक" किया जाता है और "अर्द्धमागधी कोश" में भी परित्त का अर्थ प्रत्येक दिया गया है किन्तु प्राकृत भाषा के "परित" का संस्कृत रूप " प्रत्येक" नहीं है । वस्तुतः यहाँ " परित" शब्द सीमितता या परिमितता के सन्दर्भ में आया है । आकाश परिमित है या अपरिमित है ? इस प्रश्न के सन्दर्भ में कोई एक निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता है; क्योंकि आकाश परिमित (सीमित) भी है अपरिमित (असीमित) भी । इसलिए उसे मात्र परिमित या सीमित ही बताना समग्रतया न तो सत्य है और न असत्य । इसलिए ऐसे कथन को सत्य और असत्य दोनों ही कहना पड़ेगा । इसीलिए इसे परित्त मिश्रक कहते हैं ।
(झ) अद्धा मिश्रक
कालांश सम्बन्धी कथन जैसे दो बज गया है, जनवरी मास व्यतीत हो रहा है आदि व्यावहारिक सत्य है; क्योंकि पारमार्थिक काल में यह विभाजन नहीं है । अतः सभी कालिक कथन पूर्णतः सत्य या असत्य नहीं कहे जा सकते । इसीलिए उन्हें अद्धा मिश्रक कथन माना गया है ।
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