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ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता
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धर्म के अतिरिक्त शेषधर्मों का प्रतिक्षेप करता है। वह उसके किसी भी अंश का ग्रहण नहीं कर पाता; क्योंकि उसका प्रतिभास से बाध होता है और बाधित अभिप्रायवान् होने से वह दुर्नयता को प्राप्त होता है । इस प्रकार ऐसा कथन अलीक और मिथ्या होता है । सिद्धसेन ने कहा हैं कि वे सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं जो अपने ही पक्ष का आग्रह करते हैं (और) दूसरे पक्ष का निषेध करते हैं, किन्तु जब वे ही परस्पर सापेक्ष और अन्योन्याश्रित होते हैं तब सम्यक्त्व के सद्भाव वाले होते हैं । अर्थात् सम्यग्दृष्टि होते हैं ।' उदाहरणार्थ अनेक प्रकार से गुणवती वेडूर्य आदि मणियाँ बहुमूल्य होकर भी यदि एक सूत्र में पिरोई हुई न हों, "रत्नावली" संज्ञा नहीं पा सकती । उसी प्रकार अपने नियतवादों का आग्रह रखने वाले परस्पर निरपेक्ष नय सम्यक् नहीं होते । भले ही वे अपने-अपने पक्ष के लिए कितने ही महत्त्व के क्यों न हों। जिस प्रकार वे ही मणियाँ एक सूत्र में पिरोई जाने से "रत्नावली" बन जाती हैं उसी प्रकार सभी नय परस्पर सापेक्ष होकर सम्यक्पने को प्राप्त होते हैं और सुनय बन जाते हैं । समन्तभद्र ने कहा है कि जो नय सापेक्षता को लेकर कथन करते हैं वे सम्यक् न हैं और वे ही वस्तुभूत तथा वे ही अर्थक्रिया करने में समर्थ हैं | 3
इस प्रकार स्पष्ट है कि जैन दर्शन उन्हीं प्रकथनों को सत्य मानता है जो सापेक्ष हों। निरपेक्ष होने पर वे ही परामर्श असत्य हो जाते हैं । वस्तुतः जैन दर्शन में प्रकथन की सत्यता और असत्यता का निर्धारण उसकी सापेक्षता और निरपेक्षता के आधार पर होता है । इसीलिए जैन तर्कशास्त्र सप्तभंगी में " स्यात् " पद को जो कि कथन की सापेक्षता का सूचक है, प्रमुख स्थान पर रखता है । " स्यात् " पद ही एक ऐसा प्रहरी है जो कथनों की सापेक्षता को बनाये रखता है और उनमें आने वाली विरोधिता का शमन भी करता है । स्यात् पद की इसी विशिष्टता के कारण ही सप्तभंगी के प्रथम और द्वितीय भंग " अस्ति" और "नास्ति" में किसी प्रकार का
१. " तम्हा सव्वे वि गया मिच्छादिट्ठी - सपक्खपडिबद्धा । अण्णोष्णाणिसिआ उप हवंति सम्मत्तसब्भावा ॥ सन्मति १:२१ ।
२. " निरपेक्षायाः मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थंकृत् ।
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आतमीमांसा, श्लो० १०८ ।
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