SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या कारण नय सत्य और अपेक्षित धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों का निषेध करने के कारण दुर्नय मिथ्या होता है ।" स्वयंभूस्तोत्र में इनके इसी आशय को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि "सर्वथा सत्, सर्वथा असत्, सर्वथा एक, सर्वथा अनेक, सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य, सर्वथा वक्तव्य, सर्वथा अव क्तव्य रूप में जो मत पक्ष में हैं, वे सब दूषित ( मिथ्या ) नय हैं और स्यात् सत्, स्यात् असत्, स्यात् एक, स्यात् अनेक, स्यात् नित्य, स्यात् अनित्य, स्यात् वक्तव्य और स्यात् अवक्तव्य रूप में जो नय पक्ष हैं वे सब पुष्ट ( सम्यक् ) नय हैं । इस कथन का आशय यह है कि एक हो परामर्श जब " स्यात् " पद से विशेषित होता है तब वह सापेक्ष और सुनय होता है । किन्तु वही परामर्श उक्त विशेषण के अभाव में निरपेक्ष हो जाता है और निरपेक्ष परामर्श दुर्नय होता है । अतः नय और दुर्नय के बीच अन्तर स्थापित करने का कार्य " स्यात्” पद करता है । अब यदि यह कहा जाय कि सभी परामर्श वस्त्वांश के ही विमर्श हैं; क्योंकि वे उसके किसी न किसी अंश का विवेचन करते ही हैं; तब वे दुर्नयता को कैसे प्राप्त होते हैं ? जैन दर्शन के अनुसार एक पक्षात्मक प्रवृत्ति करने पर आंशिक ज्ञान का कोई विषय नहीं रहता और विषय न रहने से नयत्व नहीं बन सकता; क्योंकि किसी एक अंश से विशिष्ट अर्थ को जो ( परामर्श) प्राप्त करता है वह नय है । अपने अभिप्रेत धर्म के कथन के साथ ही शेष धर्मों का प्रतिक्षेप करने वाला परामर्शं वस्तुतः असत्य होता है; क्योंकि वस्तु एक ही धर्म से विशिष्ट नहीं है, वह अनेक धर्म से परिकरित (युक्त) स्वभाव वाली है। उसका प्रतिभास होता है । उसका अपह्नव करने वाले दुष्ट- अभिप्राय हैं, वे प्रतिभास से बाधित होने से अलोक ( मिथ्या ) हैं । वस्तुतः जो कथन वस्तु के किसी एक अंश का ग्रहण विशिष्टता से करता है वह तो नय है । किन्तु जो अपने अभीप्सित १. “णिययवयणिज्जसच्चा, सव्वनया परिवियालणे मोहा । सन्मतिप्रकरण, प्रथम काण्ड, गाथा २८ । २. "सदेक- नित्य - वक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः । सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीह ते ॥ स्वयंभू स्तोत्र, १८:१६ । ३. न्यायावतार, पृ० १११; अनुवादक – पं० विजय मूर्ति | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy