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ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता
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उसका कोई प्रयोजन न होने से वह उन धर्मों का न तो निषेध करता है और न तो विधान हो । किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि नय वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता को अस्वीकार करता है । वह प्रमाण की ही तरह वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता को स्वीकार अवश्य करता है । पर उन दोनों की ग्रहण मर्यादा में कुछ भिन्नता है । प्रमाण वस्तु के समस्त धर्मों को ग्रहण करता है पर नय वस्तु के एकांश तक हो सीमित रहता है ।
(३) दुर्नय
अब तक हमने देखा कि अनन्तधर्मात्मक वस्तु को अखण्ड रूप में ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण और अपने विवक्षित धर्म का समर्थन तथा अन्य अविवक्षित धर्मों का प्रतिषेध न करने वाला परामर्श या ज्ञान नय कहलाता है । किन्तु यही नय जब परामर्श में अपने अपेक्षित धर्म का निश्चय और शेष धर्मों का तिरस्कार या निषेध करने लगता है; तब "दुर्नय" की संज्ञा को प्राप्त होता है । अर्थात् किसी वस्तु के अन्य धर्मों का निषेध करके अपने अभीष्ट धर्म को ही एकान्तिक रूप से स्वीकार करने वाले ज्ञान को दुर्नय कहते हैं। जैसे-घड़ा अनित्य ही है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है कि "वे नय जो सापेक्ष हों तो सुनध कहलाते हैं और जो निरपेक्ष हों वे दुर्नय कहलाते हैं ।""
नय और दुर्नय, दोनों में मुख्य रूप से वस्तु के एकांश का ही ग्रहण होता है । परन्तु उनमें अन्तर यह है कि नय सापेक्ष होता है और दुर्नय निरपेक्ष । नय प्रमाणांश होने से सत्य होता है और दुर्नय एकान्तिक होने से मिथ्या । नय परामर्श हेतु अपेक्षित धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों का निषेध नहीं करता है जबकि दुर्नय अनपेक्षित धर्मों का निषेध कर देता है ।
नय और दुर्नय में यही अन्तर है ।
नय वस्तु में स्थित अनन्त धर्मों में से अपने कथन हेतु अपेक्षित धर्म को प्रधानता से ग्रहण करने पर भी शेष धर्मों का निषेध नहीं करता । बल्कि उसकी तरफ से उदासीन रहता है जबकि दुर्नय अपने इष्ट धर्म का ग्रहण करते हुए अनिष्ट ( अनिच्छित ) धर्मों का निषेध कर देता है । अभीष्ट धर्म के ग्रहण के साथ ही अनभीष्ट धर्मों का प्रतिषेध न करने के
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१. " ते सावेक्खा सुणया, णिरवेक्खा ते वि दुण्णया होति" ।
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कार्तियानुप्रेक्षा, गा० २६६.
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