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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या नष्ट हो जाते हैं। दीघनिकाय में इन विचारों का चित्रण निम्नलिखित रूप में किया गया है
"भिक्षओं! कोई श्रमण या ब्राह्मण इस प्रकार की चित्त समाधि को प्राप्त करता है जिससे समाहित चित्त में अनेक प्रकार के पूर्वजन्मों को जैसे एक संवर्त-विवर्त (कल्प), दस संवर्त में इस नाम का था, स्मरण करता है, सो मैं वहाँ मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ। इस प्रकार वह अपने पूर्वजन्म के सभी आकार प्रकारों को स्मरण करता है । अतः वह (इसी के बल पर) कहता है-आत्मा और लोक दोनों नित्य है।"' किन्तु इस शाश्वतवादी विचारधारा के विपरीत उच्छेदवादी विचारकों का मत है कि आत्म तत्त्व नित्य नहीं है। वह चार महाभूतों के संयोग से उत्पन्न है और उनके इस संयोग के नष्ट होते ही उच्छिन्न, विनष्ट हो जाता है। इसका भी उल्लेख दीघनिकाय में है
"कोई श्रमण या ब्राह्मण ऐसा मानते हैं-यथार्थ में आत्मा रूपी = चार महाभूतों से बना है और माता-पिता के संयोग से उत्पन्न होता है,
१. "इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय
अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधि फुसति यथासमाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतुप्पक्किलेसे अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं-एक पि जाति द्वे पि जातियो तिस्सो पि जातियो चतुस्सो पि जातियोपञ्च पि जातियो दस पि जातियो वीसं पि जातियो तिसं पि जातियो चत्तालीसं पि जातियो पञ्चासं पि जातियो जातिसतं पि जाति सहस्सं पि जातिसतसहस्सं पि अनेकानि पि जातिसतानि अनेकानि पि जातिसहस्सानि अनेकानि पि जातिसतसहस्सानिः "अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवं वण्णो एवमाहारो एवं सुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादि, तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नोति । इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति ।"
___ सो एवमाह--"सस्सतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्टो एसिकट्ठायिट्टितो; ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थि त्वेव सस्सतिसमं ।"
--दीघनिकाय--ब्रह्मजालसुत्त १:३१: पधानसंसोधको-भिक्खु जगदीसकस्सपो ।
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