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अनेकान्तिक दृष्टि का विकास इसलिए शरीर के नष्ट होते ही आत्मा भी उच्छिन्न, विनष्ट और लुप्त हो जाता है।" ___ इसी नित्यता और अनित्यता के प्रश्न को लेकर एक तीसरी विचारधारा भी थी। इस विचारधारा वाले विचारक ऐसा कहते थे कि यह आत्मा न तो नित्य है और न तो अनित्य । यह अंशतः नित्य है और अंशतः अनित्य । चक्षु, श्रोत्रादि इन्द्रियाँ तथा शरीर अनित्य है और चित्त, मन या विज्ञान नित्य है। इसके संदर्भ में बुद्ध ने कहा है कि "भिक्षुओं! कितने श्रमण या ब्राह्मण तर्क करने वाले हैं ? वे तर्क और न्याय से ऐसा कहते हैं जो यह चक्षु, श्रोत्र, नासिका, जिह्वा और शरीर है, वह अनित्य, अध्रुव है और (जो) चित्त, मन या विज्ञान है (वह) नित्य
ध्रुव है।"
इस प्रकार इन तीन परस्पर विरोधी मन्तव्यों के अतिरिक्त और भी अनेक विरोधी मतवादों का उल्लेख "ब्रह्मजालसुत्त" में है, जो नित्यता और अनित्यता के सम्बन्ध में अपने-अपने मन्तव्य प्रस्तुत कर रहे थे। इसी प्रकार आत्मा चेतन है या अचेतन । इस प्रश्न के सम्बन्ध में भी विचारकों में मतैक्यता नहीं थी। कुछ चिन्तक यह मानते थे कि आत्मा, शरीर के नष्ट हो जाने पर भी रूपवान, रोगरहित एवं आत्मप्रतीति के साथ विद्य
१. "इध, भिवखवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा एवंवादी होति एवंदिट्टि
“यतो खो, भो, अयं अत्ता रूपी चातुमहाभूतिको मातापेत्तिसम्भवो कायस्स भेदा उच्छिज्जति विनस्सति न होति परं मरणा, एत्तावता खो भो, अयं अत्ता सम्मा समुच्छिन्नो होती'ति । इत्थेके सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञपेन्ति ।"
दीघनिकाय १.३.८५ "इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा तक्की होति वीमंसी । सो तक्कपरियाहतं वीमंसानुचरितं सयंपटिभानं एवमाह -"यं खो इदं वुच्चति चवखं इति पि सोतं इति पि धानं इति पि जिव्हा इति पि कायो इति पि अयंअत्ता अनिच्चो अर्धवो असस्सतो विपरिणामधम्मो । यं च खो इदं वुच्चति चित्तं ति वा मनो ति वा विज्ञाणं ति वा अयं अत्ता निच्चो धुवो सस्सतो अविपरिणामधम्मो सस्सतिसमं तथैव ठस्सती'ति ।"
वही १.३.४९
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