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जेन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
मान रहता है किन्तु कुछ मनीषी इसके विपरीत यह मानते थे कि शरोरनाश के साथ ही आत्मा और उसकी चेतना का भी नाश हो जाता है। मरणोपरान्त शेष कुछ भी नहीं रहता है। इन मतों का भी उल्लेख दोघनिकाय में है___ "भिक्षुओं ! कितने श्रमण और ब्राह्मण" मरने के बाद आत्मा संज्ञी रहता है। ऐसा मानते हैं। मरने के बाद आत्मा रूपवान, रोगरहित और आत्म प्रतीति (संज्ञा-प्रतीति) के साथ रहता है।"" परन्तु इसके विपरीत कुछ लोग ऐसे भी थे जो यह मानते थे कि शरीर-नाश के बाद आत्मा असंज्ञी हो जाता है। बुद्ध ने कहा है कि "भिक्षओं! कितने श्रमण और ब्राह्मण आठ कारणों से, मरने के बाद आत्मा असंज्ञी रहता है; ऐसा मानते हैं।"
उस युग में इसी प्रश्न के सन्दर्भ में चिन्तन करने वाले कुछ ऐसे भी मनीषी थे जो यह कहते थे कि मरणोपरान्त आत्मा न तो चेतन ही रहता है और न तो अचेतन । इनके इस मत का भी उल्लेख दोघनिकाय में है । बुद्ध कहते हैं__ "भिक्षओं ! कितने श्रमण और ब्राह्मण आठ कारणों से, मरने के बाद आत्मा नैवसंजी, नैवासंज्ञी रहता है। ऐसा मानते हैं।३।।
१. "इमेहि सो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका सञ्जीवादा उद्धमा
धातनं सझिं अत्तानं पञपेन्ति सोळसहि वत्थूहि। ये हि केचि, भिक्खवे समणा वा ब्राह्मणा वा उद्धमाघातनिका सञ्जीवादा उद्धमाघातनं सञि अत्तानं पञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव सोळसहि वत्थूहि, एतेसं वा अञ्ज तरेन; नत्थि इतो बहिद्धा ।"
दोघनिकाय १.३७.७ २. “सन्ति, भिक्खवे, एके समण ब्राह्मणा उद्धमाघातनिका सञ्जीवादा. उद्ध
माघातनं असझिं अत्तानं पअपेन्ति अट्टहि वत्थूहि। ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ उद्धमाघातनिका असञ्जीवादा उद्धमाघातनं असञि अत्तानं पञ पेन्ति अट्टहि वत्थू हि ?"
१.३.७८ ३. "सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका नेवसञ्जीनासी
वादा, उद्धमाघातनं नेवसञिीनासञ्चि अत्तानं पञपेन्ति अट्टहि वत्थूहि ।
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