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अनेकान्तिक दृष्टि का विकास इसी प्रकार उस युग में कुछ ऐसे भी विचारक थे जो यह मानते थे कि किसी भी प्रश्न का एक निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता। किसी भी वस्तु को नित्य या अनित्य, एक या अनेक, सत् या असत् नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः वे कोई भी निश्चित निर्णय देना असंगत समझने लगे और प्रत्येक वस्तु तत्त्व के सम्बन्ध में वह है, नहीं है, न है और न नहीं है ऐसा कहने लगे। दीघनिकाय में इनके इस मत का चित्रण करते हुए कहा गया है कि "महाराज! यदि आप पूछे, "क्या परलोक है ? और यदि मैं समझू कि परलोक है, तो आप को बतलाऊँ कि परलोक है मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता, मैं दूसरी तरह से भी नहीं कहता, मैं यह भी नहीं कहता कि "यह है, मैं यह भी नहीं कहता कि "परलोक नहीं है; परलोक है भी और नहीं भो; परलोक न है और न नहीं है।''
शभाशभ कर्मों और तज्जन्य फलों के सन्दर्भ में भी विचारकों ने अपनेअपने मत प्रस्तुत किये हैं। कुछ मनीषी यह कहते थे कि शुभ-अशुभ, पाप और पुण्य आदि अपने-अपने कर्म के अनुसार ही प्राप्त होते हैं। इनका ज्ञान प्राप्त करना भी सम्भव है। किन्तु इसके विपरीत कुछ विचारक यह मानते थे कि शुभ और अशुभ, अच्छा और बुरा, पाप और पुण्य आदि के के सन्दर्भ में कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। उनका ज्ञान प्राप्त होता है या नहीं यह भी नहीं कह सकता। इस प्रकार के संशय में पड़कर वे यही कहते थे कि-यह अच्छा है या बुरा है हम इसे नहीं जान सकते। दीघनिकाय में बुद्ध ने कहा है, "भिक्षुओं ! कोई श्रमण या ब्राह्मण ठीक से नहीं जानता कि यह अच्छा है और यह बुरा। उसके मन में ऐसा होता है-मैं ठीक से नहीं जानता हूँ कि यह अच्छा है और यह बुरा । तब
ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ उद्धमाघातनिका नेवसञ्जीनासञ्जीवादा उद्धमाघातनं नेवसीनासनि अत्तानं पञपेन्ति अढहि वत्थूहि ?
वही १.३ ८१ १. "अत्थि परो लोको ति इति चे मं पुच्छसि, अत्थि परो लोको ति इति चे मे
अस्स, अत्थि परो लोको ति इति ते नं ब्याकरेय्यं । एवं ति पि मे नो, तथा ति पि मे नो, अञ या ति पि मे नो, नो ति पि मे नो, नो नो ति पि मे नो ति । नत्थि परो लोकोपे० ''अत्थि च नत्थि च परो लोको'"पे...." नेवत्थि न नत्थि परो लोको ।”
वही १.३.६५
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