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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
"स्यात्" शब्द का व्युत्पत्तिगत अर्थ
सप्तभङ्गी के प्रत्येक भंग के प्रारम्भ में प्रयुक्त "स्यात्" शब्द संस्कृत साहित्य के अस धातु, विधिलिङ्ग का एक क्रियापद रूप भी है। संस्कृत भाषा में इसका प्रयोग कहीं विधिलिङ्ग की क्रिया के रूप में तो कहीं प्रश्न के रूप में तो कहीं प्रकथन की अनिश्चयात्मकता को अभिव्यक्त करने के लिए होता है। इस आधार पर हिन्दी भाषा में इसका अर्थ "शायद", "हो सकता है", "संभवतः", "कदाचित्" और अंग्रेजी भाषा में Probable, May be, Perhaps, Somehow आदि होता है और इन्हीं अर्थों के आधार पर स्याद्वाद को संशयवाद, संभववाद, अनिश्चयवाद आदि समझने की भूल की जाती है। किन्तु “स्यात्" शब्द का यह अर्थ जैन-दार्शनिकों को कभी भी अभिप्रेत नहीं रहा है। दुर्भाग्य यही है कि जैनेतर विचारकों ने जैन-ग्रन्थों के अवलोकन के बिना ही परम्परानुसार इसका व्याकरणसम्मत अर्थ ही ग्रहण किया और उसके प्रायोगिक अर्थ पर ध्यान नहीं दिया ।
___ यह आवश्यक नहीं है कि भाषा में प्रत्येक शब्द अपने व्युत्पत्तिप रक या धात्विक अर्थ में हो प्रयुक्त हो; यद्यपि अनेक शब्द ऐसे होते हैं जो अपने धात्विक अर्थ में प्रयुक्त किये जाते हैं। किन्तु कुछ शब्द ऐसे भी होते हैं जिनका प्रयोग धात्विक अर्थ में न होकर प्रायोगिक अर्थ में ही होता है। और अनेक शब्दों के अर्थ अपने प्रयोग के दौरान इतने बदल जाते हैं कि उनका प्रायोगिक अर्थ उनके धात्विक अर्थ से भिन्न होता है। कुछ ऐसे भी प्रसंग होते हैं जहां किसी शब्द विशेष को एक प्रतीकात्मक अर्थ प्रदान कर दिया जाता है और बाद में उसका प्रयोग उस प्रदत्त अर्थ के सन्दर्भ में ही किया जाता है। जैन आचार्यों ने अनेक प्रसंगों में शब्दों को अपने धात्विक अर्थ से भिन्न किसी विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त किया है जैसे धर्म शब्द का प्रयोग धर्म-द्रव्य के विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ के सन्दर्भ में हुआ हैं । यहाँ धर्म शब्द का तात्पर्य न तो "रीलिजन' है न कर्तव्य है, न वस्तु के स्वाभाविक गुण-धर्म हैं। दूसरे शब्दों में, यहाँ धर्म शब्द का प्रयोग अपने धात्विक अर्थ से भिन्न विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में हुआ है। इसी प्रकार कर्म शब्द क्रिया का वाचक न होकर पुद्गल के एक विशिष्ट वर्ग का वाचक बताया गया है।
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