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(अ) वस्तुतत्त्व को अनन्तधर्मात्मकता
सर्वप्रथम स्याद्वाद के औचित्य स्थापन के लिए हमें वस्तुतत्त्व के उस स्वरूप को समझ लेना होगा, जिसके प्रतिपादन का हम प्रयास करते हैं । वस्तुतत्त्व मात्र सीमित लक्षणों का पुंज नहीं है, जैन दार्शनिकों ने उसे अनन्तधर्मात्मक कहा है। यदि हम वस्तुतत्त्व के भावात्मक गुणों पर ही विचार करें तो उनकी संख्या भी अनेक होगी। उदाहरणार्थ गुलाब का फूल गन्ध की दृष्टि से सुगन्धित है, तो वर्ण की दृष्टि से किसी एक या एकाधिक विशिष्ट रंगों से युक्त है, स्पर्श की दृष्टि से उसको पंखुड़ियाँ कोमल हैं, किन्तु डंठल तीक्ष्ण है, उसमें एक विशिष्ट स्वाद है, आदि आदि। यह तो हई वस्तु के भावात्मक धर्मों की बात, किन्तु उसके अभावात्मक धर्मों की संख्या तो उसके भावात्मक धर्मों की अपेक्षा कई गुना अधिक होगी, जैसे गुलाब का फूल, चमेली का, मोगरे का या पलास का फूल नहीं है। वह अपने से इतर सभी वस्तुओं से भिन्न है और उसमें उन सभी वस्तुओं के अनेकानेक धर्मों का अभाव भी है। पुन: यदि हम वस्तुतत्त्व की भूत एवं भावी तथा व्यक्त और अव्यक्त पर्यायों ( सम्भावनाओं) पर विचार करें तो उसके गुण धर्मों की यह संख्या और भी अधिक बढ़कर निश्चित ही अनन्त तक पहुँच जावेगी । अतः यह कथन सत्य है कि वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मों, अनन्त गुणों एवं अनन्त पर्यायों का पुँज है। मात्र इतना ही नहीं वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक होने के साथ-साथ अनेकान्तिक भी है, मानव बुद्धि जिन्हें परस्पर विरोधी गण मान लेती है वे एक ही वस्तुतत्त्व में अपेक्षा भेद से एक साथ रहते हुए देखे जाते है ।'
अस्तित्व नास्तित्व पूर्वक है और नास्तित्व अस्तित्व पूर्वक है । एकता में अनेकता और अनेकता में एकता अनुस्यूत है, जो द्रव्य दृष्टि से नित्य है, वही पर्यायद ष्टि से अनित्य भी है। उत्पत्ति के बिना विनाश और विनाश के बिना उत्पत्ति संभव नहीं है । पुनः उत्पत्ति और विनाश के लिए ध्रौव्यत्व भी अपेक्षित है अन्यथा उत्पत्ति और विनाश किसका होगा? क्योंकि विश्व में विनाश के अभाव से उत्पत्ति जैसी भी कोई स्थिति
१. कीदृशं वस्तु ? नाना धर्मयुक्तं विविधस्वभावैः सहितं, कथंचित् अस्तित्वनास्तित्देकत्वानेकत्व नित्यत्वानित्यत्व-भिन्नत्व प्रमुखेराविष्टम् ।
-स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा-टीका शुभचन्द्र; २५३
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