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उसे पुनर्गठित करें तो जैन न्याय के क्षेत्र में एक बड़ी उपलब्धि होगी क्योंकि द्वितीय एवं तृतीय भंगों की कथन विधि के विविध रूप परिलक्षित होते हैं। अतः यहाँ द्वितीय भंग के विविध स्वरूपों पर थोड़ा विचार करना अप्रासंगिक नहीं होगा। मेरी दृष्टि में द्वितीय भंग के निम्न चार रूप हो सकते हैं : सांकेतिक रूप
उदाहरण (1) प्रथम भंग-अ उ वि है (1) प्रथम भंग में जिस धर्म (विधेय) द्वितीय भंग-अ उ नहीं है का विधान किया गया है। अपेक्षा
बदलकर द्वितीय भंगमें उसी धर्म ( विधेय) का निषेध कर देना। जैसे : द्रव्यदृष्टि से घड़ा नित्य है। पर्यायदृष्टि से घड़ा नित्य
नहीं है। (2) प्रथम भंग-अ उ वि है (2) प्रथम भंग में जिस धर्म का द्वितीय भंग-अऊ वि है। विधान किया गया है, अपेक्षा
बदलकर द्वितीय भंग में उसके विरुद्ध धर्म का प्रतिपादन कर देना है। जैसे-द्रव्यदृष्टि से घड़ा नित्य है पर्यायदृष्टि से घड़ा
अनित्य है। (3) प्रथम भंग-अ उ वि है (3) प्रथम भंग में प्रतिपादित धर्म को द्वितीय भंग-अ"-उवि नही है पुष्ट करने हेतु उसी अपेक्षा से
द्वितीय भंग में उसके विरुद्ध धर्म या भिन्न धर्म का वस्तु में निषेध कर देना। जैसे-रंग की दृष्टि से यह कमीज
नीली है। रंग की दृष्टि से यह कमीज पीली नहीं है।
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