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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय की आधुनिक व्याख्या
शर्मा ने असंख्य एवं अनन्त शब्द के अन्तर को भुला दिया है; क्योंकि जैन आचार्यों के अनुसार असंख्य वह है जिसकी गणना संभव नहीं होतो परन्तु वह सान्त है जबकि अनन्त वह है जिसका अन्त कथमपि संभव नहीं है । यहाँ डॉ० शर्मा के असंख्य का आशय आत्मा की अनन्तता ( अनेकान्तता) से ही है । अतः इस असंख्य को अनन्त का हो सूचक समझना चाहिए ।
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डॉ० मोहन लाल मेहता ने इस बात की पुष्टि की है कि आत्मा में भी चैतन्य गुण के अतिरिक्त अन्य गुण धर्म भी हैं। उनके हो शब्दों में - "उपयोग के अतिरिक्त उत्पाद, व्यय, धौग्य, सत्व, प्रमेयत्वादि अनेक साधारण धर्म भी उसमें (जोव में ) पाये जाते है ।" पंचास्तिकाय ? में भी कहा गया है कि किसी भाव अर्थात् सत् का अत्यन्त नाश नहीं होता और किसी अभाव अर्थात् असत् का उत्पाद नहीं होता। सभी पदार्थ अपने गुण और पर्याय रूप से उत्पाद व्यय करते रहते हैं । लोक में जितने सत् हैं, वे त्रैकालिक सत् हैं । उनको संख्या में कभी हेर-फेर नहीं होता । किन्तु उनके स्वरूप लक्षण को छोड़कर अन्य गुणों में और पर्यायों में परिवर्तन अवश्यम्भावी है । कोई भी द्रव्य इसका अपवाद नहीं हो सकता; अर्थात् प्रत्येक सत् प्रतिसमय परिणमन करता है । वह पूर्व पर्यायों को छोड़कर उत्तर पर्यायों को धारण करता है । उसकी यह पूर्व व्यय तथा उत्तरोत्पाद की धारा अनादि और अनन्त है, कभो भो विच्छिन्न नहीं होती । चाहे चेतन हो या अचेतन, कोई भो वस्तु सत्, उत्पाद व्यय के चक्र से बाहर नहीं है । यह उसका निज स्वभाव है । उसका मौलिक धर्म है | अतः उसे प्रतिसमय परिणमन करना चाहिए ।
आत्मा जो कि द्रव्य दृष्टि से नित्य है वहीं अपनी चेतन पर्यायों को
aspects of its own. A thing has got an infinite number of characteristics of its own.
—A Critical Survey of Indian Philosophy, p. 50. १. जैन दर्शन पृ० १५८.
२. भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेवउप्पादो |
गुणपज्जयेसु भावा उपाय वयं पकुव्वति ।
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- पंचास्तिकाय, गा. १५.
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