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प्रतिषेध का युगपद् ( एक ही साथ ) प्रतिपादन सम्भव नहीं है, अतः अवक्तव्य भंग की योजना है । दूसरे निरपेक्ष रूप से वस्तुतत्त्व का कथन सम्भव नहीं है, अतः वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है । तीसरे अपेक्षाएँ अनन्त हो सकती हैं किन्तु अनन्त अपेक्षाओं से युगपद् रूप में वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन संभव नहीं है इसलिए भी उसे अवक्तव्य मानना होगा। इसके निम्न तीन प्रारूप हैं
(3) (अ)
(
य
(1 ) ( अ ' अ ) उ अवक्तव्य है,
•
(2) ~
अवक्तव्य है,
२८ )
य
उ अवक्तव्य है ।
सप्तभंगी के शेष चारों भंग सायोगिक हैं । विचार की स्पष्ट अभिव्यक्ति की दृष्टि से इनका महत्त्व तो अवश्य है किन्तु इनका अपना कोई स्वतन्त्र दृष्टिकोण नहीं है, ये अपने संयोगी मूलभंगों की अपेक्षा को दृष्टिगत रखते हुए ही वस्तुस्वरूप का स्पष्टीकरण करते हैं । अतः इन पर यहाँ विस्तृत विचार अपेक्षित नहीं है ।
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सप्तभंगी और त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र :
वर्तमान युग में पाश्चात्य तर्कशास्त्र के विचारकों में ल्युसाइविक ने एक नयी दृष्टि दी है, उसके अनुसार तार्किक निर्णयों में केवल सत्य, असत्य ऐसे दो मूल्य ही नहीं होते, अपितु सत्य, असत्य और सम्भावित सत्य ऐसे तीन मूल्य होते हैं । इसी संदर्भ में डॉ० एस० एस० बारलिंगे ने जैन न्याय को त्रिमूल्यात्मक सिद्ध करने का प्रयास जयपुर की एक गोष्ठी में किया था । यद्यपि जहाँ तक जैनन्याय या स्याद्वाद के सिद्धांत का प्रश्न है उसे त्रिमूल्यात्मक माना जा सकता हैं क्योंकि जैन न्याय में प्रमाण, सुनय और दुर्नय ऐसे तीन क्षेत्र माने गये हैं, इसमें प्रमाण सुनिश्चित सत्य, सुनय सम्भावितसत्य और दुर्नय असत्यता के परिचायक हैं । पुनः जैन दार्शनिकों ने प्रमाणवाक्य और नयवाक्य ऐसे दो प्रकार के वाक्य मानकर प्रमाणवाक्य को सकलादेश ( सुनिश्चित सत्य या पूर्ण सत्य ) और नयवाक्य को विकलादेश (सम्भावित सत्य या आंशिक सत्य) कहा है । नयवाक्य को न सत्य कहा जा सकता है और न असत्य । अतः सत्य
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