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तृतीय अध्याय ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता
ज्ञान की प्रामाणिकता का प्रश्न
देखना, जानना समझना मानव का सहज स्वभाव है। वह प्रत्येक वस्तु के मूल-स्वरूप को जानने का प्रयास करता है और मात्र उसके बाह्य प्रतीति या इन्द्रियानुभूति से सन्तुष्ट नहीं होता। वह अपनी प्रतीत्यात्मक अनुभूति के पीछे भी झाँकना चाहता है। वह वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझने का प्रयत्न करता है। उसके लिए उसके पास मात्र दो हो साधन उपलब्ध हैं-एक इन्द्रियाँ और दूसरा तर्क बुद्धि । मानव इन्हीं सीमित साधनों से तत्त्वाधिगम का प्रयास करता है। किन्तु इन्द्रियानुभूति से प्राप्त वस्तुतत्त्व के बाह्य-स्वरूप के ज्ञान से असन्तुष्ट मानव उसके सारतत्त्व को तर्क बुद्धि से समझने का प्रयत्न करता है। फिर भी उसकी यह जिज्ञासा बनी ही रहती है कि वास्तव में सत्य क्या है ? यथार्थ क्या हैं ? उसे कैसे जाना जा सकता है ? वस्तु के सन्दर्भ में हमें जो यह ज्ञान प्राप्त हो रहा है वह कैसा है ? वह सत्य है या असत्य है ? प्रामाणिक है या अप्रामाणिक है ? आदि-आदि। ____ यहाँ हमारे विवेचन का विषय यह नहीं है कि ज्ञान कहाँ से प्राप्त हो रहा है ? अपितु मात्र इतना ही है कि जो यह ज्ञान हमें प्राप्त हो रहा है वह सत्य है या असत्य ? प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? और उसकी प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता का कारण क्या है ?
जैन-दर्शन के अनुसार, ज्ञान प्रज्ज्वलित दीपक के समान है। जिस प्रकार दीपक पर पदार्थों को प्रकाशित करते हुए अपने को भी प्रकाशित करता है उसी प्रकार ज्ञान पर पदार्थों को जानने के साथ ही साथ अपने को भी जानता है। डॉ. महेन्द्र कुमार जैन दार्शनिक साहित्य के आधार पर ज्ञान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि "ज्ञान का सामान्य धर्म है अपने स्वरूप को जानते हुए पर पदार्थ को जानना । वह अवस्था विशेष में पर को जाने या न जाने, पर अपने स्वरूप को तो हर हालत
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