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२०६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
इसी तथ्य का समर्थन प्रो० सत्कारी मुकर्जी ने भी किया है। उन्होंने प्रथम अर्थात् स्यादस्ति भङ्ग को 'A' और द्वितीय अर्थात् स्यान्नास्ति भङ्ग को 'B' मानकर यह तर्क प्रस्तुत किया है कि- तर्कवाक्य " 'A' + 'B' नहीं है" या "A में B की सत्ता नहीं है" ये कथन इसके कथन के समतुल्य नहीं है कि A की असत्ता है जैसा कि जैनों का निष्कर्ष है । B का निषेध B से सम्बन्धित है न कि A से । तर्कवाक्य A, B नहीं है या A में B की सत्ता नहीं है | अतः तर्कवाक्य A, B नहीं है ।'
इस प्रकार प्रथम और द्वितीय भंग भिन्न-भिन्न विधेयों का विधान और निषेध करते हैं । अतः उनमें किसी प्रकार की व्याघातकता नहीं है ।
अब जहाँ तक व्याघातकता के नियम को मानने और न मानने की बात है वहाँ एक ओर तो सप्तभङ्गी के प्रथम एवं द्वितीय भङ्ग की उपर्युक्त व्याख्या के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैन आचार्य व्याघातकता के नियम को मानते हैं, क्योंकि वे उस दोष से बचने का प्रयास करते हैं, किन्तु, दूसरी ओर उनकी अनेकान्तवाद की व्याख्या के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि वे व्याघातकता के नियम को नहीं मानते हैं । प्रो० सङ्गम लाल पाण्डेय ने इस दूसरे पक्ष का समर्थन करते हुए लिखा है कि जैन तर्कशास्त्र व्याघातकता के नियम का खण्डन करता है । इसीलिए उसे
cit) and determinate (niyata) abstraction from a complex and concrete real.
-Dr. Y. J. Padmarajiah. -A Comparative Study of the Jaina Theories of Reality and Knowledge, p. 345.
1. It is contended by him, ‘The proposition 'A' is not 'B' or 'A' has not being as 'B' does not admit of the construction that ‘A’ has non-being of 'B' as an element of its being, which is the Jaina conclusion. The negation of 'B' relates to ‘B’ and not to 'A'. The proposition 'A' is not 'B' or 'A' has not the being of 'B' cannot be regarded as the equivalent of the proposition 'A' is not.
-The Jaina Philosophy of Non-Absolutism: A critical study of Anekantavada, p. 183.
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