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समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन
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व्याघातकता का नाशक और सामान्य दृष्टिकोण का उद्भावक कहा जाता है। वह (जैन-तर्कशास्त्र) सत्ता में सत्त्व-असत्त्व आदि अनेक विरोधी धर्मों को स्वीकार करता है। इसीलिए स्याद्वाद के द्वारा उन्हीं तर्कशास्त्रों का संकेत हो सकता है, जो व्याघातकता के नियम का खण्डन करते हैं और व्याघातक कथनों को कुछ सत्यता मूल्य प्रदान करते हों।' चूंकि सत्ता विरोधी गण-धर्मों से परिपूर्ण है। अतः वस्तुतत्त्व के सन्दर्भ में व्याघातकता के नियम को अस्वीकार करके ही चलना होगा। जैन दष्टि से सत्ता में अन्तर्विरोध है। वह तो अन्तविरोध का पूञ्ज है। कहा भी है जो सत् है वही असत् है, जो एक है वह अनेक भी है, जो नित्य है वह अनित्य भी है। वस्तुतः वस्तु तत्त्व में व्याघातकता या अन्तविरोध तो है ही, किन्तु, यदि हम कथन पद्धति में भी इस व्याघातकता के नियम को अस्वीकार करके चलें तो भाषा की सार्थकता समाप्त हो जायेगी। वस्तुतः जैन दार्शनिक द्रव्यार्थिक दृष्टि से तो व्याघातकता के नियम का परिहार करते हैं। किन्तु, पर्यायार्थिक दृष्टि से या प्रकथन पद्धति को दष्टि से उसे स्वीकार भी करते हैं। वस्तुतः वे एक ऐसे तर्कशास्त्र की स्थापना करना चाहते हैं जो सत्ता में सन्निविष्ट अन्तविरोध को स्वीकार करते हुए भी एक ऐसी तर्कपद्धति या भाषा पद्धति का विकास करना चाहते हैं, जो स्वयं अन्तविरोध अर्थात् व्याघातकता से रहित हो और सप्तभङ्गो इसो प्रयास की एक फलश्रुति है।
1. “The Syadvada challenges the law of contradiction and is
therefore called the destroyer of contradiction and the protector of the commonsense view that holds that reality has controdictory attributes. Hence only that logic is indicated by Syadvada which challanges the law of contradiction and gives some truth values to controdictory statements.
— Nayavada and Many Valued Logic' Seminar on Jain Logic and Philosophy 27th to 30th November, 1975 at the Department of Philosophy, University of Poona.
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