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षष्ठ अध्याय
उपसंहार
क्या सप्तभंगी सप्त-मूल्यात्मक है ?
जैन सप्तभंगी की व्याख्या द्वि-मूल्यीय तर्कशास्त्र के आधार पर नहीं की जा सकती है; क्योंकि वह द्वि-मूल्यात्मक है ही नहीं। सप्तभंगी का प्रत्येक भंग न तो निरपेक्षतः सत्य है और न तो असत्य । अपितु, सापेक्षतः सत्य भी है और सापेक्षतः असत्य भी। इसलिए उन्हें सत्य या असत्य का मान देना जैन धारणा के विपरीत है। यदि किसी तरह अस्ति और नास्ति को सत्य और असत्य का मान दे भी दिया जाय तो अवक्तव्य के मूल्य को द्विमूल्यात्मक तर्कशास्त्र के आधार पर निर्धारित करना असम्भव हो जाता है। इसलिए सप्तभंगी की द्वि-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र के आधार पर व्याख्या करने का प्रयत्न करना व्यर्थ है। यद्यपि जैन दर्शन में प्रमाणनय, नय और दुर्नय की अलग-अलग कल्पना नहीं है तथापि कुछ तर्कविदों ने प्रमाणनय (सुनय), नय और दुर्नय को सप्तभंगी का आधार मानकर, उसे त्रि-मूल्यात्मक सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। डॉ० संगमलाल पाण्डेय ने सन् १९७५ में पूना विश्वविद्यालय में आयोजित एक विचारगोष्ठी में "नयवाद ऐण्ड मैनी-वेल्यड लॉजिक" नामक एक निबन्ध पढ़ा था। इसी के तुल्य उन्हीं का "स्याद्वाद के विरोधाभास" नाम का एक अन्य लेख १९७५ के दार्शनिक त्रैमासिक के चतुर्थ अंक में प्रकाशित है। उक्त दोनों निबंधों में उन्होंने यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि जैन न्याय त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र पर आधारित है। इसलिए उसे त्रि-मूल्यात्मक कहा जा सकता है। उन्होंने लिखा है-'मेरे विचार से वह (त्रि-मूल्यीय तकशास्त्र) जैन दर्शन का आधार बन सकता है, क्योंकि यह भी जेन दर्शन की भाँति प्रमाणनय (सुनय), नय और दुर्नय को क्रमशः कम सत्यता से उत्पन्न मानता है और जिस प्रकार जैन तर्कशास्त्र निर्मध्य नियम और बाध नियम का खण्डन करता है, उसी प्रकार त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र भी खण्डन करता है। मैं लुकासीविज़ के त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र और जैन तर्कशास्त्र की पहले तुलना
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