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________________ १४८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या कहने की असामर्थ्य के कारण फलित होने वाला ही विवक्षित है। अतः अवक्तव्य को किसी एक ही स्थान पर उपस्थित होना आवश्यक नहीं है तृतीय एवं चतुर्थ दोनों ही स्थानों पर प्रस्तुत हो सकता है। डॉ० मोहन लाल मेहता के अनुसार अवक्तव्य भंग का तृतीय एवं चतुर्थ दोनों ही स्थानों पर प्रयुक्त होना अर्थपूर्ण है। उन्होंने लिखा है कि "जहाँ अस्ति और नास्ति इन दो भंगों का निषेध है वहाँ अवक्तव्य का तीसरा स्थान है और जहाँ अस्ति, नास्ति और अस्तिनास्ति (उभय) तीनों का निषेध है वहाँ अवक्तव्य का चौथा स्थान है।" सामान्यतः यदि अवक्तव्य सप्तभंगी में कहीं तीसरे स्थान पर आया है और कहीं चौथे स्थान पर, तो उसे असङ्गत नहीं कहना चाहिए । उसके ऐतिहासिक साहित्य पर दृष्टिपात करने पर भी यही दृष्टिगत होता है कि ऋग्वेद के ऋषियों ने जगत् के आदि कारण को सत् और असत् दोनों ही रूपों में अवक्तव्य बताया था। अतः यहाँ अवक्तव्य का तीसरा स्थान फलित होता है। ऐसी अवस्था में यदि भगवती सूत्र अवक्तव्य को तीसरे स्थान पर प्रस्तुत करता है तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं क्योंकि वह भी तो प्राचीन परम्परा के अनुरूप ही है। उमास्वाति, सिद्धसेन, जिनभद्र आदि आचार्यों ने इसी परम्परा का अनुगमन किया था। परन्तु इसके विपरीत माण्डूक्योपनिषद् में आत्मा को चतुष्पाद रूप बताते हुए उसे चतुर्थ स्थान पर प्रयुक्त किया गया है । इस विधान के अनुसार वह सत्, असत् और उभय इन तीनों भंगों का निषेध करता है । अतः उसे चौथे स्थान पर प्रयुक्त होना चाहिए और अधिकांश जैन-विचारकों को अवक्तव्य का यही चौथा स्थान ही अभिप्रेत है। यद्यपि उसका तीसरा स्थान भी अर्थहीन नहीं है। परन्तु यह सप्तभंगी के उद्देश्य से अपूर्ण प्रतीत होता है; क्योंकि उसका तीसरा स्थान या तीसरे स्थान पर प्रयुक्त होना मात्र विधि और निषेध को ही निषेधित करना है; जबकि सप्तभंगी में चतुर्थ स्थान पर प्रयुक्त अवक्तव्य का आशय मात्र इतना ही नहीं है। उसकी दृष्टि में तो उभय पक्ष का भी निषेध होना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि अवक्तव्य मात्र विधि और निषेध का ही नहीं; अपितु उभय पक्ष का भी निषेध करता है। अर्थात् अवक्तव्य वह है जो विधि, निषेध और उभय तीनों ही पक्षों से अवाच्य हो, अगोचर हो । अतः सप्तभंगी में अवक्तव्य को चतुर्थ स्थान १. जैन धर्म-दर्शन, पृ० ३६५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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