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१४६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या को लेकर भंग बनाये जाँय तो निश्चय ही उनकी संख्या अनन्त तक पहुंच जायेगी। परन्तु उपर्युक्त भंगों को यदि ध्यान पूर्वक देखा जाय तो ऐसा प्रतीत होगा कि उनमें मूल रूप से सत्, असत् और अवक्तव्य इन तीन भंगों का ही विस्तार है । जहाँ तक भंगों की संख्या बढ़ने का प्रश्न है तो उसके लिए विवेच्य विषयों (धर्मों) की संख्या बढ़ायी गयी है । यदि धर्म (विवेच्य विषय) की संख्या एक ही रहे तो निश्चय ही अपुनरुक्त भंग सात ही होंगे। यदि किसी तरह उन्हें बढ़ाते भी हैं तो वे किसी-न-किसी भंग के पुनर्कथन ही होंगे। पुनर्कथनों का स्वतन्त्र रूप से कोई मूल्य नहीं होता। इसलिए एक धर्म के संदर्भ में सात ही भंग बनेंगे, ऐसा मानना चाहिए।
वस्तु का स्वरूप ही कुछ इस प्रकार का है। जिसे वचनातीत या अनिर्वचनीय कहा जा सकता है। वाणी उसके अखण्ड रूप तक नहीं पहुँच सकती। कोई भी व्यक्ति जब वस्तु के अखण्ड रूप को जानना या कहना चाहता है, तब वह सर्वप्रथम उसका अस्ति रूप से वर्णन करता है। पर जब वह उसके अखण्ड रूप के कथन में अपने को असमर्थ पाता है, तब उसका नास्तिरूप से वर्णन करता है। किन्तु फिर भी वह उसकी अनन्त धर्मात्मकता की सीमा को पार नहीं कर पाता; तब वह उसे उभय रूप से देखता है। किन्तु उससे भी पार न पाने पर वह उसे अवक्तव्य "यतो वाचो निवर्तन्ते", "अप्राप्य मनसा सह" अर्थात् जिसके स्वरूप को प्रतीति वचन तथा मन नहीं कर सकते; वे भी उससे निवृत्त हो जाते हैं। ऐसा है वह वचन तथा मन का अगोचर, अखण्ड, अनिर्वचनीय, अनन्तधर्मा वस्तुतत्व । इसलिए उस तत्त्व का स्वरूप अव्यक्त ही होगा। वस्तुतः वक्ता के वचन व्यापार की शुरुवात यहीं से होती है तथा उसके प्रतिपक्षी एवं वस्तु के अन्तिम पक्ष का प्रतिपादन करने वाला भंग अवक्तव्य है। इन्हीं तीन का विस्तार सप्तभंगी के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है। आगे के सभी भंग मात्र इन्हीं के संयोग हैं वे स्वतन्त्र भंग नहीं हैं । यथा :
१. स्यादस्ति-कथंचित् है। २. स्यान्नास्ति-कथंचित् नहीं है। ३. स्यादस्ति च नास्ति-कथंचित् है और नहीं है। ४. स्यादवक्तव्य-कथंचित् अवक्तव्य है। ५. स्यादस्ति चावक्तव्य-कथंचित् है और अवक्तव्य है। ६. स्यान्नास्ति चावक्तव्य-कथंचित् नहीं है और अवक्तव्य है।
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