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________________ पंचम अध्याय समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी: एक मूल्यांकन सप्तभंगी का प्रतीकात्मक स्वरूप आधुनिक तर्कविदों का मन्तव्य है कि जैन-सप्तभंगी को तार्किक प्रारूप प्रदान करने का श्रेय जैनाचार्य विद्यानन्द को है। उन्होंने सर्वप्रथम सप्तभंगी को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया था' : (१) विधि कल्पना, (२) प्रतिषेध कल्पना, (३) क्रमशः विधि-प्रतिषेध कल्पना, (४) युगपत् विधि-प्रतिषेध कल्पना, (५) विधि कल्पना और युगपत् विधि-प्रतिषेध कल्पना, (६) प्रतिषेध कल्पना और युगपत् विधि प्रतिषेध कल्पना, (७) क्रमशः और युगपत् विधि-प्रतिषेध कल्पना । स्पष्ट है कि श्री विद्यानन्द ने सप्तभंगी के मूल में केवल दो भंगों को स्वीकार किया है। शेष पांचों भंग उक्त दोनों भंगों की व्याख्या मात्र हैं। किन्तु इसके विपरीत कुछ ताकिकों का विचार है कि सप्तभंगी के मूल में केवल एक ही भंग है दूसरा भंग तो उसी का निषेधक है। इस सन्दर्भ में डॉ० (श्रीमती) आशा जैन का विचार द्रष्टव्य है। उन्होंने लिखा है"किन्तु जैन तार्किक को यह ज्ञात न हो सका कि प्रतिषेध भी वास्तव में उसी प्रकार का तार्किक फल है जैसे क्रमभाव और युगपत् भाव । अतः यदि उनके ताकिक फलन पर विचार किया जाय तो वास्तव में मूल भंग एक ही है और वह है विधि कल्पना। अन्य भंग इसी प्रथम भंग के तार्किक फलन से सिद्ध हो जाते हैं। अतः "अस्ति" को मूलभंग मानना समीचीन १. अष्टशती, पृ० १२५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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