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________________ १८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या भी तत्पर थे। इस समझौतावादी विचार का उल्लेख करते हुए डा० राधाकृष्णन् कहते हैं कि “पाँच गृहस्थ पुरुष उद्दालक को अग्रणी बनाकर अश्वपति नामक राजा के पास पहुँचे, राजा ने उनमें से हर एक से पूछा ! तुम आत्मा के रूप में किसका ध्यान करते हो? पहले ने उत्तर दिया द्यलोक का, दूसरे ने कहा सूर्य का, तीसरे ने कहा वायु का, चौथे ने कहा शन्य आकाश का और पाँचवें ने कहा जल का। राजा उत्तर देता है उन सब में से हर एक ने सत्य के केवल एक पार्श्व की पूजा की है। उस मुख्य सत्ता का धुलोक शीर्षस्थानीय है, सूर्य चक्षुस्थानीय है, वायु प्राणस्वरूप है, शून्याकाश धड़ के समान है, जल मूत्रालय है और भूमि पदस्थानीय है-यह विश्वात्मा का चित्र है। अल्पमत के मान्य दार्शनिक विश्वासों और अधिकतर संख्या के काल्पनिक अन्धविश्वासों के बीच समझौता हो जाना हो एक मात्र परस्पर समन्वय का सम्भव उपाय है।" इस प्रकार इन समन्वयवादी विचारकों ने विश्व के मूलतत्त्व को विश्वात्म रूप में स्वीकार किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उसका वाणी द्वारा विवेचन करना असंभव हो गया। तत्पश्चात् वे उसे अनिर्वचनीय अवाच्य, अवक्तव्य एवं नेति-नेति आदि कहकर अलंकृत करने लगे। (२) बुद्ध का दृष्टिकोण बुद्ध के समन्वय सम्बन्धी विचारों को निम्नलिखित तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है : (क) एकान्तवाद का निषेध (ख) अव्याकृतवाद और (ग) विभज्यवाद (क) एकान्तवाद का निषेध भगवान् बद्ध ने तत्कालीन सभी मतवादों का परीक्षण करके देखा कि ये जितने भी मन्तव्य हैं वे सब के सब, चाहे शाश्वतवादी हों, या अशाश्वतवादी; जड़वादी हों या चैतन्यवादी, आत्मवादी हों या अनात्मवादो, दोष. १. भारतीय दर्शन भाग १ पृ० १३२ । (Indian Philosophy का अनुवाद-अनुवादक-स्व० नन्द किशोर गोभिल). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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